संस्कारों का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम व्रहदारण्यकोपनिषद उपनिषद से प्राप्त होता है। इनकी संख्या 16 है।
गर्भाधान संस्कार –
एक पुरुष जिस क्रिया के द्वारा स्त्री में अपना वीर्य स्थापित करता है , उसे गर्भाधान संस्कार कहा जाता है । स्त्री के ऋतुकाल की चौथी रात्रि से लेकर 16 वीं रात्रि तक का समय गर्भाधान संस्कार के लिए उपयुक्त माना जाता था ।
पुंसवन संस्कार –
पुत्र प्राप्ति की इच्छा हेतु स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे , चौथे अथवा 8 वें माह में यह संस्कार किया जाता है।
सीमांतोन्नयन संस्कार –
यह संस्कार गर्भवती स्त्री के गर्भ की रक्षा के लिए गर्भ के चौथे अथवा पाँचवें माह में किया जाता था ।
इस प्रकार ये तीन संस्कार शिशु के जन्म से पूर्व किए जाते थे ।
जातकर्म संस्कार –
शिशु के जन्म के उपरान्त यह संस्कार किया जाता था । इस संस्कार के समय पिता नवजात शिशु को अपनी अंगुली से मधु अथवा घृत चटाता था तथा उसके कान में मेघाजनन का मंत्र पढ़ता था तथा उसे आशीर्वाद देता था ।
नामकरण संस्कार –
यह संस्कार नवजात शिशु के नाम रखने हेतु किया जाता था ।
निष्क्रमण संस्कार –
नवजात शिशु को घर से बाहर निकाले जाने के अवसर पर किए जाने वाला संस्कार । इस संस्कार को शिशु के जन्म के 12 वें दिन से चौथे मास के मध्य कभी भी किया जा सकता है । इस संस्कार में शिशु को अच्छे वस्त्र पहनाकर , माता – पिता के द्वारा सूर्य के दर्शन कराए जाते थे ।
अन्नप्राशन संस्कार –
यह संस्कार शिशु के जन्म के 6 वें मास में किया जाता है । इसमें शिशु को ठोस अन्न खिलार जाता है ।
चूडाकर्म संस्कार –
इस संस्कार को मुंडन अथवा चौल संस्कार के नाम से भी जाना जाता है । इस संस्कार के द्वारा शिशु के अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना की जाती है । इस संस्कार के अवसर पर शिशु के सिर के संपूर्ण बाल मुंखवा दिये जाते हैं । सिर पर मात्र शिखा ( चोटी ) रहती है ।
कर्णवेध संस्कार –
यह संस्कार रोगादि से बचने और आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता है ।
विद्यारम्भ संस्कार –
यह संस्कार बालक के जन्म के 5 वें वर्ष में सम्पन्न किया जाता है । इस संस्कार के अंतर्गत बालक को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है ।
उपनयन संस्कार-
बालक के शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाने पर यह संस्कार किया जाता था । इस संस्कार के अवसर पर बालक को यज्ञोपवीत धारण करवा के ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता था तथा बालक को उत्तरदायित्वपूर्ण तथा संयमी जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया जाता था
वेदारम्भ संस्कार –
इस संस्कार का उल्लेख सर्वप्रथम व्यास स्मृति में मिलता है । इसके अनुसार गुरु विद्यार्थी को वेदों की शिक्षा देना प्रारम्भ करता था ।
केशान्त अथवा गौदान संस्कार –
यह बालक के 16 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर किया जाने वाला संस्कार है । इस अवसर पर बालक की प्रथम बार दाड़ी – मूंछों को मूंडा जाता था । यह संस्कार बालक के वयस्क होने का सूचक है ।
समावर्तन संस्कार-
जब बालक विद्याध्ययन पूर्ण कर गुरुकुल से अपने घर को वापस लौटता था , तब इस संस्कार का सम्पादन किया जाता था । यह संस्कार बालक के ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक है । इसमें बालक अपने गुरु को उचित गुरु दक्षिणा देता था ।
विवाह संस्कार –
इस संस्कार के साथ ही मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता है ।
अन्त्येष्टि संस्कार –
यह मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार है , जो व्यक्ति के निधन हो जाने के पश्चात् सम्पन्न किया जाता है ।