हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को होली मनाई जाती है। होली से एक दिन पहले होलिका दहन होता है। इस साल 18 मार्च को होलिका दहन और 19 मार्च को रंगों से होली खेली जाएगी।

होलिका दहन की कहानी
होली का त्योहार विष्णु भक्त प्रह्लाद, हिरण्यकश्यप और होलिका की कहानी से जुड़ा है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप ने कठिन तपस्या करने के बाद ब्रह्माजी द्वारा दिए गए वरदान से खुद को भगवान मानने लगे। उसने अपने राज्य में सभी को अपनी पूजा कराना शुरू कर दिया। उसने वरदान के रूप में ऐसी शक्तियाँ प्राप्त कर ली थीं कि कोई भी प्राणी, कहीं भी, कभी भी उसे मार नहीं सकता था। न किसी जीव, देवता, दानव या मनुष्य , न रात में, न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर में, न बाहर। कोई हथियार भी उसे प्रभावित नहीं कर सका।
हिरण्यकश्यप का ज्येष्ठ पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। पिता के लाख कहने के बावजूद भी प्रह्लाद विष्णु की पूजा करता रहा। एक राक्षस का पुत्र होने के बावजूद, ऋषि नारद की शिक्षा के परिणामस्वरूप प्रह्लाद नारायण का बहुत बड़ा भक्त बन गया। असुरधिपति हिरण्यकश्यप ने भी कई बार अपने पुत्र को मारने की कोशिश की, लेकिन भगवान नारायण स्वयं उसकी रक्षा करते रहे और उसका बाल भी बांका नहीं हुआ। असुर राजा की बहन होलिका को भगवान शंकर से ऐसी चादर मिली थी कि उसे पहनने पर आग उसे जला नहीं सकती थी। होलिका ने उस चादर को ढँक दिया और प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठ गई। किस्मत से वह चादर प्रह्लाद के ऊपर से उड़ गई, जिससे प्रह्लाद की जान बच गई और होलिका जल गई। इस प्रकार, कई अन्य हिंदू त्योहारों की तरह, होलिका-दहन भी बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।
होलिका दहन का महत्व
होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत के त्योहार के रूप में मनाया जाता है।[1]