अतिथि – सेवी महाराज रन्तिदेव: महाराज संकृतिके पुत्र महाराज रन्तिदेव बड़े ही अतिथि सेवी थे । हमलोग यात्रामें थके , भूखे – प्यासे जब कोई घर देखकर वहाँ जाते हैं तो हमारे मनकी क्या दशा होती है , यह तो यात्रामें जिसे कभी थककर कहीं जाना पड़ा हो उसे पता है । ऐसे अतिथिको बैठनेके लिये आसन देना , मीठी बात कहकर उसका स्वागत करना , उसे हाथ – पैर धोने तथा पीनेको जल देना और हो सके तो भोजन कराना बड़े पुण्यका काम है । जो अपने घर आये अतिथिको फटकारता और निराश करके लौटा देता है , उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं । महाराज रन्तिदेव इतने बड़े अतिथि – सेवी थे कि अतिथिकी इच्छा जानते ही उसकी इच्छित वस्तु उसे दे देते थे । उनके यहाँ रोज हजारों अतिथि आते थे । इस प्रकार बाँटते – बाँटते महाराजका सब धन समाप्त हो गया । वे कङ्गाल हो गये । महाराज रन्तिदेवने निर्धन हो जानेपर राजमहल छोड़ दिया । स्त्री – पुत्रके साथ वे जंगलके रास्ते यात्रा करने लगे । क्षत्रियको भिक्षा नहीं माँगना चाहिये , इसलिये वनके कन्द , मूल , फल आदिसे वे अपना तथा स्त्री – पुत्रका काम चलाते थे । बिना माँगे कोई कुछ दे देता तो उसे ले लेते थे । एक बार महाराज रन्तिदेव चलते हुए ऐसे वनमें पहुँचे , जहाँ भोजनके योग्य कन्द , मूल , फल तो क्या पत्ते भी नहीं थे । उस वनमें जलका नाम नहीं था । भूखसे रानी और राजकुमार छटपटाने लगे । प्यासके मारे गला सूख गया । पूरे अड़तालीस दिनतक उन लोगोंको एक बूंद जलतक नहीं मिला । राजाने उनचासवें दिन महाराज रन्तिदेव उस वनके बाहर पहुच गये थे । पासकी किसी बस्तीके एक मनुष्यने उन्हें आदरपूर्वक घी – मिला खीर , हलुआ और शीतल जल लाकर दिया । महाराज रन्तिदेवने बड़ी शान्तिसे वह सब सामान लेकर भगवान्को भोग लगाया । अड़तालीस दिनके उपवाससे मरने – मरनेको हो रहे महाराजके मनमें उस समय भी यही दुःख था कि जीवनमें पहली बार आज किसी अतिथिको भोजन कराये बिना उन्हें भोजन करना पड़ेगा । उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आये । वे भूखे थे । उन्होंने भोजन माँगा । राजा रन्तिदेव बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने बड़े आदरसे ब्राह्मणको भोजन कराया । जब ब्राह्मण भर पेट भोजन करके चले गये , तब बचे सामानमेंसे राजाने स्त्री और पुत्रका भाग उन्हें बाँटकर दे दिया । अपना भाग लेकर वे भोजन करने जा रहे थे कि एक भूखा शूद्र आ गया । राजाने उसे भी भोजन कराया । लेकिन शूद्रके जाते ही एक और अतिथि आ पहुँचा । उसके साथ कई कुत्ते थे । वह अतिथि और उसके कुत्ते भी भूखे थे । राजाने सब भोजन अतिथि तथा उसके कुत्तोंको आदरपूर्वक दे दिया । अब उनके पास थोड़ा – सा पानी बच रहा था । राजा रन्तिदेवके भाग्यमें वह पानी भी नहीं था । प्यासके मारे उनके प्राण निकले जा रहे थे ; किन्तु जैसे ही वे पानी पीने चले , एक चाण्डाल यह पुकारता आ पहुँचा – ‘ महाराज ! मैं चाण्डाल हूँ । प्याससे मेरे प्राण जा रहे हैं । दो घूट जल मुझे देनेकी कृपा कीजिये । ‘ महाराज रन्तिदेवकी आँखोंमें आँसू आ गये । उन्होंने भगवान्से प्रार्थना की – ‘ प्रभो ! यदि मेरे इस जल – दानका कुछ पुण्य हो तो उसका फल मैं यही चाहता हूँ कि संसारके दुःखी प्राणियोंका दुःख दूर हो जाय । ‘ बड़े प्रेमसे उस चाण्डालको महाराजने वह बचा हुआ पानी भी पिला दिया । चाण्डालके जाते ही महाराज रन्तिदेव भूख – प्यासके मारे मूच्छित होकर गिर पड़े । लेकिन उसी समय वहाँ भगवान् ब्रह्मा , भगवान् विष्णु तथा भगवान् शङ्कर और धर्मराज प्रकट हो गये । ये देवता ही ब्राह्मण , शूद्र , कुत्तेसे घिरे अतिथि तथा चाण्डाल बनकर रन्तिदेवके पास आये थे । महाराज रन्तिदेवने अतिथि – सेवारूप धर्मके प्रभावसे ही परिवार भगवान्का दर्शन प्राप्त किया ।
अतिथि – सेवी महाराज रन्तिदेव। raja rantidev.rantidev ki kahani in hindi.
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