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कहानी: अतिथि सत्कार।kahani in hindi

अतिथि सत्कार: बात बहुत पुरानी है । एक ब्राह्मण – परिवार हस्तिनापुरके पास रहता था । उस परिवारमें ब्राह्मण , उनकी स्त्री , पुत्र और पुत्रवधू – ये चार व्यक्ति थे । किसान जब खेत काट लेते थे , तब ब्राह्मण उन खेतोंमें गिरा अन्न चुन लेते थे । उसी अन्नसे उनके परिवारका काम चलता था । ब्राह्मण और उनके परिवारके सभी लोग संतोषी , भगवान्के भक्त और अतिथिकी सेवा करनेवाले थे । एक बार देशमें अकाल पड़ गया । खेतोंमें अन्न हुआ ही नहीं । दिन – दिनभर भटकनेपर भी ब्राह्मणोंको इतना अन्न भी नहीं मिलता था कि जिससे एक व्यक्तिका पेट भी भर सके । लेकिन जो कुछ अन्न मिलता था , उसे ब्राह्मणी पीस लेती थी और भगवान्को भोग लगाकर चारों व्यक्ति बाँटकर खा लेते थे । बराबर उपवास करते – करते उस परिवारके सब लोग दुबले और निर्बल हो गये थे । एक दिन ब्राह्मण दिनभर खेतोंमें घूमता रहा । उसे बहुत थोड़ेसे जौके दाने मिले । घर लौटनेपर ब्राह्मणीने वे जौ पीस लिये । कुल मुट्ठीभर आटा हुआ । उसीको भगवान्को भोग लगाकर उन लोगोंने आपसमें बाँट लिया और भोजन करने बैठे । उसी समय एक भूखे ब्राह्मण अतिथि उनके दरवाजेपर आ गये । ब्राह्मणने बड़े आदरसे अतिथिको ले जाकर आसनपर बैठाया , उनके पैर धोये और अपने भागका आटा उनको भोजनके लिये दे दिया ।एक चुटकी आटेसे अतिथिका पेट कैसे भर सकता था । ब्राह्मणी वहाँ आयी और अपने भागका आटा भी उसने अतिथिको दे दिया । ब्राह्मणके पुत्रने इसके बाद अपने भागका आटा अतिथिको दिया और अन्तमें ब्राह्मणकी पुत्रवधू अपना भाग भी अतिथिको देने आयी । ब्राह्मणने पुत्रवधूसे कहा – ‘ बेटी ! तू भूखसे दुबली हो गयी है । अब और उपवास करनेसे तो तेरा जीवन ही कठिन हो जायगा । तू अपना भाग रहने दे । ‘ ब्राह्मणकी पुत्रवधूने कहा – ‘ पिताजी ! अतिथि तो साक्षात् नारायणके रूप होते हैं । अतिथिकी सेवा करना परम धर्म है ।मैं अपने प्राणके लोभसे अन्न रहते अतिथिको भूखा कैसे जाने दूं । आपलोगोंने मुझे पुण्यका जो उत्तम मार्ग दिखाया है , मैं तो उसीपर चल रही हूँ । ‘ ब्राह्मणकी पुत्रवधूने अपने भागका आटा भी अतिथिके आगे धर दिया । अतिथिने उस आटेको भी फाँक लिया और जल माँगा । ब्राह्मणने जब जल लाकर अतिथिको देना चाहा तो यह देखकर आश्चर्यमें पड़ गया कि उसकी झोपड़ी प्रकाशसे भर गयी है और उसके दिये कुशके आसनपर अतिथिके बदले साक्षात् धर्मराज बैठे हैं । अपने पुण्यके प्रभावसे ब्राह्मण अपने परिवारके साथ विमानमें बैठकर भगवान्के लोकको चला गया । ब्राह्मणकी झोपड़ीमें एक नेवला रहता था । वह नेवला उस दिन पूरी झोपड़ीमें लेटता रहा । अतिथिने ब्राह्मणके आटेकी जब फंकी लगायी थी तो उस आटेके दो – चार कण भूमिमें गिर गये थे । उन कणोंके शरीरमें लगनेसे नेवलेका आधा शरीर सोनेका हो गया और उसे मनुष्यकी भाषा बोलनेकी शक्ति मिल गयी । जब इन्द्रप्रस्थमें धर्मराज युधिष्ठिरने बड़ा भारी यज्ञ किया तो यज्ञके पीछे वह नेवला वहाँ आया और यज्ञभूमिमें लेटता रहा , किन्तु उसके अङ्गका दूसरा भाग सोनेका नहीं बना । उस नेवलेने पाण्डवोंको ऊपरकी कथा सुनाकर बताया – ‘ महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा , उदार तथा अतिथिका सत्कार करनेवाले हैं । फिर भी उस दरिद्र ब्राह्मणके आटेके कणोंका प्रभाव तो अपूर्व ही था । उस ब्राह्मणके मुट्ठीभर आटेके दानेकी बराबरी यह इतना बड़ा यज्ञ नहीं कर सकता । ‘