कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव वैसे तो सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है किन्तु भारत के कतिपय प्रान्तों में तो इसका विशेष महत्त्व हैं । तुलसी को विष्णु – प्रिया भी कहते हैं । तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल एकादशी की तिथि उत्तम है । एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पाँचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं भारतीय संस्कृति एवं धर्म में तुलसी के पौधे को गंगा – यमुना के समान पवित्र माना गया है । किसी भी प्रकार के पूजन एवं नैवेद्य में तुलसी पत्र आवश्यक समझा जाता है । तुलसी के पौधे का स्नान के बाद प्रतिदिन जल सींचना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । तुलसी के पौधे की उपस्थिति के कारण उसके आस – पास की वायु शुद्ध हो जाती है ।
तुलसी विवाह की कहानी। tulsi vivah ki kahani.
तुलसी विवाह की कहानी – प्राचीनकाल में जालन्धर नाम के राक्षस ने सब तरफ उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता उसकी पत्नी वृन्दा की पतिव्रता धर्म के प्रभाव से सभी जगह विजयी होता था । जालन्धर के उपदवों से डरकर ऋषि एवं देवता भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा करने की प्रार्थना की । उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने बहुत सोचा- विचार कर वृन्दा का पतिव्रत धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने योग माया द्वारा एक मृत शरीर वृन्दा के घर के आंगन में फिकवा दिया । माया का पर्दा होने से वृन्दा को वह शव अपने पति का दिखाई दिया । अपने पति को मृत देख वह उस मृत शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी । उसी समय एक मैं इस मृत शरीर साधु उसके पास आए और कहने लगे बेटी ! इतना विलाप मत करो जान डाल दूंगा । साधु ने मृत शरीर में जान डाल दी । भावतिरेक में वृन्दा ने उस मृत शरीर का आलिंगन कर लिया जिसके कारण उसका पतिव्रत धर्म नष्ट हो गया । बाद वृन्दा को भगवान का यह छल – कपट ज्ञात हुआ । उधर उसका पति जालन्धर , जो देवताओं से युद्ध कर रहा था , वृन्दा का सतीत्व नष्ट हो होते ही मारा गया । जब वृन्दा को इस बात का पता चला तो उसने क्रोध में आकर भगवान विष्णु को श्राप दे दिया , जिस प्रकार तुमने छलसे मुझे पति वियोग दिया है उसी प्रकार तुम भी अपनी पत्नी का छल पूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे । यह कहकर वृन्दा अपने पति के शव के साथ सती हो गई । भगवान विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हुए । देवताओं व ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा पार्वतीजी ने वृन्दा की चिता भस्म में आंवला , मालती व तुलसी के पौधे लगाए । भगवान विष्णु ने तुलसी के पौधे लगाए ।
भगवान विष्णु ने तुलसी को ही वृन्दा रूप समझा मगर कालान्तर में राम अवतार के समय रामजी को सीता का वियोग सहना पड़ा । कहीं – कहीं प्रचलित है कि वृन्दा ने यह शाप दिया था , ‘ तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अतः तुम पत्थर बनोगे । ‘ विष्णु बोले , हे वृन्दा , तुम मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी । जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा , वह परमधाम को प्राप्त होगा । इसी कारण शालिग्राम या विष्णु भगवान की पूजा बिना तुलसी दल के अधूरी मानी जाती है । इस पुण्य की प्राप्ति के लिए आज के कलियुग में भी तुलसी विवाह बड़ी धूम – धाम से किया जाता है । तुलसी का कन्यादान करके तुलसी विवाह सम्पन्न करता है । अतः तुलसी पूजा करने का बड़ा ही माहात्म है ।
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