शनिवार के दिन शनि देव की पूजा अर्चना की जाती है और शनिवार व्रत कथा सुनी जाती है। शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है। शनिवार का व्रत शनि की दशा को दूर करने के लिए किया जाता है। इस दिन शनि स्तोत्र का पाठ भी विशेष लाभदायक सिद्ध होता है।
भगवान शनिदेव का व्रत करने तथा शनिवार व्रत कथा सुनने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है और सारे दोषों का निवारण होता है।
शनिवार व्रत विधि
शनिवार के दिन शनि देव की पूजा काला तिल, काला वस्त्र, तिल ,उड़द जो शनिदेव के अति प्रिय है से की जाती है। शनि देव को काला रंग अति प्रिय हैं इसीलिए इस दिन काले रंग का पकवान जरूर बनाना चाहिए। इस दिन सुबह प्रातः जल्दी उठकर इसमें आदि दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर काले या नीले रंग के वस्त्र पहनने चाहिए इससे घर में सुख शांति आती है। इस दिन पीपल पूजा का भी विशेष महत्व होता है।
शनि देव की मूर्ति की पूजा करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करें:
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव
शनिवार के दिन लोहे की वस्तुएं दान करना चाहिए तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा भी देना चाहिए।शनिवार व्रत कथा। saniwar vart katha.
एक समय सूर्य ,चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन ग्रह में आपस में विवाद हो गया कि हम में से सबसे बड़ा कौन है?
सब खुद को दूसरे ग्रह से बड़ा मानते थे। जब आपस में कोई निश्चय न हो सका तो सब आपस में झगड़ते हुए देवराज इंद्र के पास गए और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा हैं इसलिए आप हमारा न्याय करके बताएं कि हम नवग्रहों में से सबसे बड़ा ग्रह कौन सा है?
देवराज इंद्र देवताओं का यह प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है कि मैं किसी को बड़ा या छोटा बता सकूं। मैं अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता। हां एक उपाय हो सकता है। इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य दूसरों के दुखों का निवारण करने वाले हैं, इसलिए आप सब मिलकर उनके पास जाएं वही आपके विवाद का निवारण करेंगे।
सभी ग्रह देवता देवलोक से चलकर भूलोक में जाकर राजा विक्रमादित्य की सभा में उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा। राजा विक्रमादित्य ग्रहों की बात सुनकर गहरी चिंता में पड़ गई कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसका छोटा बताऊंगा। जिसको छोटा बताऊंगा वही क्रोध करेगा। उनका झगड़ा निपटाने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा और सोना, चांदी, कांसा, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा 9 धातुओं के नौ आसन बनवाए।
सब आसनों को क्रम से जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाया गया। इसके पश्चात राजा ने सभी ग्रहों से कहा कि आप सब अपना अपना आसन ग्रहण करें, जिसका आसान सबसे आगे होगा वही सबसे बड़ा ग्रह होगा तथा जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा होगा। क्योंकि लोहा सबसे पीछे था और लोहा शनिदेव का आसन होता है इसलिए शनिदेव को लगा कि राजा मुझे सबसे छोटा मानता है।इस निर्णय पर शनिदेव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने कहा कि राजा तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता।
सूर्य एक राशि पर 1 महीना, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति 13 महीने, बुध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं, परंतु में एक राशि पर ढाई वर्ष से लेकर साढे 7 वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुख दिया है। राजन सुनो! श्री रामचंद्र जी को साढ़ेसाती आई और उन्हें वनवास हो गया। रावण परंतु राम ने वानरों की सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी और रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजन! अब तुम सावधान रहना।
राजा विक्रमादित्य ने कहा जो कुछ भाग्य में होगा, देखा जाएगा। इसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ अपने अपने स्थान पर चले गए परंतु शनिदेव क्रोध के साथ वहां से चले गए। कुछ काल व्यतीत होने पर जब राजा विक्रमादित्य को साढ़ेसाती की दशा आई तो शनिदेव घोड़ों का सौदागर बनकर अनेक सुंदर घोड़ों सहित राजा विक्रमादित्य की राजधानी में आए।
जब राजा ने घोड़ों के सौदागर के आने की खबर सुनी तो अपने अश्व पाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्व पाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े पहले कभी नही देखा था जैसे ही उसने उन्हें देखा और घोड़ों का मूल्य पूछा तो वह आश्चर्यचकित हो गया और जल्दी जाकर राजा विक्रमादित्य को बताया।
जब राजा विक्रमादित्य मैं उन घोड़ों को देखा तो उनमें से एक सबसे सुंदर घोड़े को अपने लिए चुना और उस पर सवारी करने के लिए उसकी पीठ पर बैठ गया।राजा के पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा तेजी से भगा। घोड़ा बहुत दूर एक घने जंगल में जाकर राजा को छोड़कर अंतर्ध्यान हो गया। इसके बाद राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में भटकते फिरते रहे। भूख प्यास से दुखी राजा ने भटकते भटकते एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया।
राजा की अंगुली में एक अंगूठी थी। वह अंगूठी उसने निकालकर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और स्वयं शहर की ओर चल दिया। राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया और अपने आप को उज्जैन का रहने वाला तथा नाम विका बताया। सेठ ने उसको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जल आदि पिलाया। भाग्यवस उस दिन सेठ की दुकान से बहुत अधिक चीजें बिकी और मुनाफा कमाया। तब सेठ ने सोचा कि इस व्यक्ति के आने से ही आज इतनी बिक्री हुई है इसलिए सेट ने उसको भोजन कराने के लिए अपने घर पर लेकर गया।।
राजा विक्रमादित्य जैसे ही भोजन करने लगा तो उसने देखा कि एक आश्चर्यजनक घटना हो रही है, जिस खूंटी पर हार लटक रहा था वह खूंटी खुद ही उस हार को निगल रही थी। राजा के भोजन कर लेने के बाद जब सेठ उस कमरे में आया तो उसने देखा कि जो हार पहले वहां खूंटी पर टिका हुआ था वह वहां नहीं है।
सेठ ने सोचा कि इस कमरे में विका के अलावा अभी तक कोई नहीं आया है तो चोरी भी इसी ने की होगी। परंतु विका ने हार चुराने से इनकार कर दिया। इस पर पांच सात आदमी उसको पकड़कर नगर फौजदार के पास ले गए। फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि यह आदमी भला प्रतीत होता है चोर मालूम नहीं होता परंतु सेट का कहना है कि इसके सिवाय कोई घर में नहीं आया इसीलिए चोरी अवश्य इसी ने की है। राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ पैर काटकर चौरंगीया किया जाए। राजा की आज्ञा का तुरंत पालन किया गया और विका के हाथ पैर काट दिए गए।
कुछ काल व्यतीत होने पर एक तैली उसको अपने घर ले गया और उसको कोल्हू के ऊपर बिठा दिया। विका उस पर बैठा हुआ अपनी मुख से बोलकर ही बैल हांकता रहा। इस समय तक राजा विक्रमादित्य पर से शनिदेव की दशा पूरी हो गई। इस समय तक वर्षा ऋतु का समय आ गया था मौसम बहुत अच्छा रहने लगा था राजा भी प्रसन्न होकर मल्हार राग गाने लगा। राजा की आवाज बहुत मधुर थी उसको गाते हुए सुनकर राजकुमारी मन भावनी जो उस नगर के राजा की पुत्री थी राजा विक्रमादित्य की राग पर मोहित हो गई।
राजकन्या ने राग गाने वाले की खबर लाने के लिए अपनी दासी को भेजा। दासी सारे शहर में घूमती रही। जब वह तेली के घर के निकट से निकली तब क्या देखती है कि तेली के घर में चौरंगीया राग गा रहा है। दासी ने लौटकर राजकुमारी से सब वृतांत सुना दिया।
बस उसी क्षण राजकुमारी मन भावनी ने अपने मन में यह प्रण कर लिया कि चाहे कुछ भी हो मुझे इस चौरंगीया से ही विवाह करना है । प्रातकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी मन भावनी को जगाना चाहा तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के उठने का कारण बताया। रानी ने वहां आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुख का कारण पूछा।
राजकुमारी ने कहा कि मां मैंने यह प्रण लिया है कि तेली के घर में जो चौरंगीया है मैं उसी के साथ विवाह करूंगी। माता ने कहा पगली तू यह क्या कह रही है ? तेरा विवाह किसी देश के राजा के साथ किया जाएगा। कन्या कहने लगी कि माताजी में अपना प्रण कभी नहीं तोडूंगी। मां ने चिंतित होकर यह बात महाराज को बताई। महाराज ने भी आकर उसे समझाया कि मैं अभी देश देशांतर में अपने दूध भेजकर सुयोग्य रूपवान एवं बड़े से बड़े *गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा। ऐसी बात तुम्हें कभी नहीं विचारनी चाहिए।
लेकिन राजकुमारी मन भावनी अपने मन में ही राजा विक्रमादित्य जो कि जो चोरंगिया के भेष में थे को अपना पति मान चुकी थी उसने अपने पिता से कहा कि मैं अपने प्राण तक त्याग दूंगी लेकिन इसके अतिरिक्त किसी दूसरे से विवाह कभी नहीं करूंगी।
यह सुनकर राजा ने क्रोध में आकर कहा यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चोरंगिया है उसके साथ में अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं।तेली ने कहा महाराज ये कैसे हो सकता है?
कहां आप हमारे राजा कहां मैं एक नीच तेली। राजा ने कहा कि भाग्य के लिखे कोई नहीं टाल सकता अपने घर जाकर विवाह की तैयारी करो। राजा ने सारी तैयारी कर तोरण और वंदनवार लगवा कर राजकुमारी का विवाह चोरंगीया के साथ कर दिया। रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए हुए थे तब आधी रात के समय शनि देव ने विक्रमादित्य को स्वपन में आकर कहा कि राजा कहो मुझको छोटा बताकर तुमने कितना दुःख उठाया है?
राजा ने शनिदेव से क्षमा मांगी शनिदेव ने राजा को समा कर दिया। और प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ पैर दिए। तब राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव से प्रार्थना की महाराज मेरी प्रार्थना स्वीकार करें जैसा दुःख आपने मुझे दिया है ऐसा और किसी को ना दें। शनि देव ने कहा तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या सुनाएगा उसे मेरी दशा नहीं लगेगी। और जो भी व्यक्ति रोज मेरे मंत्र का जाप करेगा या चीटियों को अनाज डालेगा मैं उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करूंगा। इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गए।
जब राजकुमारी मन भावनी की आंख खुली तो उसने चोरंगिया को हाथ पाव सहित देखा तो आश्चर्यचकित हो गई। उसको देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपना समस्त हाल का कि मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूं । यह घटना सुनकर राजकुमारी अत्यंत प्रसन्न हुई। प्रातकाल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पिछली रात का हालचाल पूछा तो तो राजकुमारी ने बड़ी प्रशंसा से रात में जो राजा विक्रमादित्य ने उससे कहा था वह सब सुना दिया यह सुनकर राजकुमारी की सहेलियां भी प्रसन्न हुई और कहा कि भगवान ने तुम्हारे सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर दी।
जब उस सेठ ने यह घटना सुनी तो है राजा विक्रमादित्य के पास आया और उनके पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया। आप मुझे जो चाहे दंड दे दे। राजा ने कहा मुझ पर शनिदेव का कोप था इसी कारण यह सब दुख मुझ को प्राप्त हुआ, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम अपने घर चले जाओ इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह सुनकर सेठ बोला की राजन यदि आपने मुझे क्षमा कर दिया है तो कृपया मेरे घर पर चलिए और प्रेम पूर्वक भोजन ग्रहण कीजिए तो आपकी अति कृपा होगी।
राजा ने कहा जेसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर व्यंजन बनवाएं और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय राजा भोजन कर रहे थे एक अत्यंत आश्चर्यजनक घटना सबको दिखाई दी। जो खूंटी पहले हार निगल गई थी अब वह हार उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत सी मोहरे राजा को भेंट दी और कहा मेरी श्री कवरि नाम की एक कन्या है उसका आप परी ग्रहण करें।
राजा विक्रमादित्य सेठ की बात से सहमत हो गए। और सेठ की कन्या श्री कवरि से विवाह कर लिया। सेठ ने राजा को बहुत दहेज दिया। इसके बाद कुछ समय तक राजा उस राज्य में निवास करने के पश्चात राजा विक्रमादित्य ने अपने ससुर राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। कुछ दिन बाद विदाई लेकर राजकुमारी मन भावनी सेठ की कन्याश्री कावरी तथा दोनों जगह दहेज में प्राप्त अनेक दास दासिया, रथ और पालकिया सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चलें।

जब वे शहर के निकट पहुंचे और पुर वासियों ने राजा के आने का संवाद सुना तो उज्जैन की समस्त प्रजा अगवानी के लिए आई। प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे। सारी नगर में भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने अपने पूरे राज्य में यह घोषणा करवाई की शनि देवता सब ग्रहों में सर्वोपरि है।
सभी ग्रहों में मैंने शनिदेव को सबसे छोटा बताया जिसके कारण शनि देव के क्रोध बस मुझे यह सब दुख भोगना पड़ा इसके बाद सारे नगर में शनिदेव की पूजा अर्चना की जाने लगी जिससे सभी नगर वासी आनंद में रहने लगे । जो कोई शनिदेव की इस शनिवार व्रत कथा को पड़ता है या सुनता है ,शनि देव की कृपा से उसके सब दुख दूर हो जाते हैं , व्रत के दिन शनिवार व्रत कथा को अवश्य पढ़ना चाहिए।
हम आशा करते हैं कि आपको शनिवार व्रत कथा (saniwar vart katha)अच्छी लगी होगी धन्यवाद।