रंगभरी एकादशी को फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी कहा जाता है। इसे आमलकी एकादशी व्रत कहते हैं। रंगभरी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा के साथ आंवले की पूजा की जाती है. धार्मिक मान्यता है कि इस एकादशी के दिन भगवान शिव पहली बार माता पार्वती को काशी लाए थे। इसलिए यह एकादशी बाबा विश्वनाथ के भक्तों के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है।

रंगभरी एकादशी व्रत कथा
प्राचीन काल में चित्रसेन नामक राजा था. उसके राज्य में एकादशी व्रत का बहुत महत्व था. राजा समेत सभी प्रजाजन एकादशी का व्रत श्रद्धा भाव के साथ किया करते थे. राजा की आमलकी एकादशी के प्रति बहुत गहरी आस्था थी. एक बार राजा शिकार करते हुए जंगल में बहुत दूर निकल गये. उसी समय कुछ जंगली और पहाड़ी डाकुओं ने राजा को घेर लिया और डाकू शस्त्रों से राजा पर प्रहार करने लगे, परंतु जब भी डाकू राजा पर प्रहार करते वह शस्त्र ईश्वर की कृपा से पुष्प में परिवर्तित हो जाते. डाकुओं की संख्या अधिक होने के कारण राजा संज्ञाहीन होकर भूमि पर गिर गए. तभी राजा के शरीर से एक दिव्य शक्ति प्रकट हुई और उस दिव्य शक्ति ने समस्त दुष्टों को मार दिया, जिसके बाद वह अदृश्य हो गई.
जब राजा की चेतना लौटी तो उसने सभी डाकुओं को मरा हुआ पाया. यह दृश्य देखकर राजा को आश्चर्य हुआ. राजा के मन में प्रश्न उठा कि इन डाकुओं को किसने मारा. तभी आकाशवाणी हुई कि हे राजन! यह सब दुष्ट तुम्हारे आमलकी एकादशी का व्रत करने के प्रभाव से मारे गए हैं. तुम्हारी देह से उत्पन्न आमलकी एकादशी की वैष्णवी शक्ति ने इनका संहार किया है. इन्हें मारकर वह पुन: तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर गई. यह सारी बातें सुनकर राजा को अत्यंत प्रसन्नता हुई, एकादशी के व्रत के प्रति राजा की श्रद्धा और भी बढ़ गई. तब राजा ने वापस लौटकर राज्य में सबको एकादशी का महत्व बतलाया.