हिन्दू धर्म में प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है , रविवार को आने प्रदोष को रवि प्रदोष कहा जाता है । उत्तर भारत में इसे प्रदोष व्रत तथा दक्षिण भारत में प्रदोषम कहा जाता है । प्रदोष व्रत हर महीने की शुक्ल एवं कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को आता है । सप्ताह के विभिन्न दिनों पर पड़ने के कारण प्रदोष का महत्व भी बदल जाता है । इस बार प्रदोष रविवार को पड़ रहा है , इसे रवि प्रदोष प्रदोष भी कहते हैं । मनुष्य के जीवन में रवि प्रदोष का विशेष महत्व है , मान्यतानुसार रवि प्रदोष व्रत करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है और वह दीर्घायु तथा सुखी जीवन व्यतीत करता है । सूर्य प्रदोष के दिन कुशा के आसन पर बैठकर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें और पाठ के बाद अपने पिता या पिता की उम्र के समान व्यक्ति के चरण स्पर्श करें ।

रवि प्रदोष व्रत कथा ,ravi Pradosh Vrat Katha
एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उनकी धर्मपरायण पत्नी प्रदोष व्रत रखती थीं। उनका एक बेटा था। एक बार वह पुत्र गंगा स्नान करने गया। दुर्भाग्य से, रास्ते में वह चोरों से घिरा हुआ था और डर गया और उससे पूछा कि उसके पिता का गुप्त धन कहाँ रखा गया था। लड़के ने नम्रता से कहा कि वह बहुत गरीब और दुखी है। उसे गुप्त धन कहाँ से मिला? चोरों ने उसकी हालत पर दया की और उसे छोड़ दिया।
लड़का अपने रास्ते चला गया। चलते-चलते वह थक गया और एक बरगद के पेड़ के नीचे सो गया। तब उस नगर के सिपाही चोरों को ढूंढ़ते हुए निकले। उसने ब्राह्मण-बच्चे को चोर समझकर बंदी बना लिया और राजा के सामने पेश कर दिया। राजा ने उसकी बात सुने बिना उसे कारागार में डाल दिया। जब ब्राह्मण का पुत्र घर नहीं पहुंचा तो उसे बहुत चिंता हुई। अगले दिन प्रदोष व्रत था। ब्राह्मणी ने प्रदोष व्रत किया और भगवान शंकर से अपने पुत्र की भलाई के लिए प्रार्थना करने लगे।
उसी रात राजा को स्वप्न आया कि बालक निर्दोष है। यदि इसे मुक्त नहीं किया गया तो आपका राज्य और महिमा नष्ट हो जाएगी। सुबह उठते ही राजा ने लड़के को बुलाया। लड़के ने राजा को सच बता दिया। राजा ने अपने माता-पिता को दरबार में आमंत्रित किया। उन्हें डरा हुआ देख राजा मुस्कुराया और कहा- ‘तुम्हारा बच्चा मासूम और निडर है। आपकी गरीबी के कारण हम आपको पांच गांव दान में देते हैं।’ इस प्रकार ब्राह्मण सुख से रहने लगा। शिव की कृपा से उनकी गरीबी दूर हुई।
प्रदोष व्रत का माहात्म्य
प्रदोष अथवा त्रयोदशी का व्रत मनुष्य को संतोषी व सुखी बनाता है । इस व्रत से सम्पूर्ण पापों का नाश होता है । इस व्रत के प्रभाव से विधवा स्त्री अधर्म से दूर रहती है और विवाहित स्त्रियों का सुहाग अटल रहता है । वार के अनुसार जो व्रत किया जाए , तदनुसार ही उसका फल प्राप्त होता है । सूत जी के कथनानुसार त्रयोदशी का व्रत करने वाले को सौ गाय – दान करने का फल प्राप्त होता है ।
प्रदोष व्रत की उद्यापन विधि
विधान से इस व्रत को करने पर सभी कष्ट दूर होते हैं और इच्छित वस्तु की प्राप्ति है धर्मालुओं को ग्यारह प्रयोदशी अथवा वर्ष भर की 26 त्रयोदशी के व्रत करने के उपरान्त उद्यापन करना चाहिए ।