Homeसभ्यतावैदिक सभ्यता,जानिए वैदिक संस्कृति का संपूर्ण इतिहास व समाजिक जीवन

वैदिक सभ्यता,जानिए वैदिक संस्कृति का संपूर्ण इतिहास व समाजिक जीवन



भारत सिन्धु घाटी सभ्यता ( या हड़प्पा सभ्यता ) तथा ताम्र पाषाणयुगीन संस्कृतियों के पतनोपरांत भारतीय उपमहाद्वीप में अनेकानेक नवीन संस्कृतियों का आविर्भाव हुआ , जिनमें सर्वाधिक प्रमुख सप्तसैंधव प्रदेश में पनपी आर्य सभ्यता थी , जिसका विकास आर्यों ने किया था । इसे इतिहास में वैदिक सभ्यता ‘ के नाम से जाना जाता है ।

यह एक ग्राम प्रधान सभ्यता थी । इस सभ्यता एवं संस्कृति के संबंध में जानकारी प्रदान करने वाले प्रमुख स्रोत चार वेद हैं , इसीलिए इसका वैदिक सभ्यता ‘ नामकरण हुआ ।

वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य थे । आर्यों के में आगमन , प्रसार एवं विकास की सूचना प्रदान करने का प्रमुख स्रोत ऋग्वेद ही है । यह आर्यों का प्राचीनतम ग्रंथ है ।

आर्यों का मूल निवास : भाषा विज्ञान , इतिहास , पुरातत्व , शरीर रचनाशास्त्र व नृजातीय तत्त्वों के आधार पर आर्यों के मूल निवास के संबंध में निम्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है

यूरोपीय सिद्धान्त:

इंस सिद्धान्त के अनुसार आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप था । इसका प्रतिपादन सन् 1786 ई . में सर विलियम जोन्स ने किया । पी . गाइल्स , पेंका , नेहरिंग आदि भी इसी मत के समर्थक हैं ।

मध्य एशिया

जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर के अनुसार आर्य मध्य एशिया ( ईरान व आसपास के क्षेत्र से ) से आए थे । इनके पक्ष में पोट , श्लीगल , मेयर एवं रेहर्ड आदि विद्वान भी हैं । मध्य एशिया के प्रसिद्ध बोगजकोई अभिलेख में इन्द्र , वरुण , मित्र व अनेक वैदिक देवताओं का उल्लेख है जो आर्यों के मध्य एशियाई होने का प्रमाण है । साथ ही आर्यों के प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद व ईरानी ग्रंथ जेन्द अवेस्ता में भाषाई समानता का होना भी इस पक्ष में प्रभावी प्रमाण है

आर्कटिक प्रदेश ( उत्तरी ध्रव )

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने आर्कटिक प्रदेश ( उत्तरी ध्रव ) को आर्यों का मल स्थान बताया है

ब्रह्मर्षि देश

डॉ . गंगानाथ झा के अनुसार आर्यों का आदि देश ब्रह्मर्षि देश ( कुरु , पांचाल , शूरसेन तथा मत्स्य जनपद ) भारत था ।

तिब्बत

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यों का आदि देश माना है । ‘ पार्जितर ‘ ने भी इनके मत का समर्थन किया है ।

समशीतोष्ण प्रदेश

पी . गाइल्स ने आर्यों को समशीतोष्ण प्रदेश ( विशेषतः हँगरी क्षेत्र ) का मूल निवासी बताया है ।

जर्मनी

पेन्काहार्ट इन्हें जर्मनी का मूल निवासी मानते हैं । उन्होंने अपने तर्क के पक्ष में आर्यों की शारीरिक विशेषता जैसे – रक्त , वर्ण , भूरे बाल आदि का जर्मन लोगों से साम्य होने का उल्लेख किया है ।

  • दक्षिणी रूस के स्टेपी मैदानों को आर्यों का मूल निवास मानने वाले विद्वान गार्डन चाइल्ड , नेहरिंग व पीकानो हैं ।
  • एल.डी. काला आदि विद्वान आर्यों का मूल निवास कश्मीर क्षेत्र को मानते हैं ।
  • एडवर्ड मेयर पामीर के पठार को तथा रोड्स बैक्ट्रिया को आर्यों का मूल स्थान मानते हैं । सेउस इन्हें केस्पियन सागर क्षेत्र से आया मानते हैं ।
  • विनाश चन्द्र एवं संपूर्णानंद आर्यों को सप्तसैंधव प्रदेश का ही मूल निवासी मानते हैं , जबकि श्री राजबलि पाण्डेय इन्हें मध्य देश ( भारत का मध्यभाग ) का मानते हैं

सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त : प्रो . मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित मध्य एशिया के सिद्धान्त को अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया है ।

इसके अनुसार 1500 ई . पूर्व के आसपास आर्यों की एक शाखा ईरान होते हुए भारत आई । भारत में आर्यों का आगमन लगभग 1500 ई.पू. का माना जाता है ।

प्रारम्भ में इनके अधिवास का प्रधान केन्द्र सप्त सैंधव प्रदेश ( सिन्धु व उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र ) था , धीरे धीरे इन्होंने यहाँ पहले से रह रहे अनार्यों को पराजित कर सरस्वती व दृषद्वती ( वर्तमान घग्घर ) नदियों के भू – भाग पर अपना अधिकार किया , जो उत्तरवैदिक काल में गंगा – यमुदा के मैदान में स्थानान्तरित हो गया ।

वैदिक ग्रंथों ( चारों वैद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ यथा उपनिषद , ब्राह्मण , आरण्यक आदि ) के लेखन काल तथा विषयगत सामग्री के आधार पर वैदिक काल को दो भागों में बाँटा गया है

  1. ऋग्वैदिक काल – ( 1500 ई.पू. – 1000 ई.पू. )
  2. उत्तरवैदिक काल – ( 1000 ई.पू. – 600 ई.पू. )

वैदिक सभ्यता का भौगोलिक विस्तार :

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वैदिक सभ्यता का विस्तार

प्रारम्भ में वैदिक सभ्यता का विस्तार एवं प्रभाव क्षेत्र बहुत कम था । ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य आवास सिन्धु तथा सरस्वती नदियों का घाटी प्रदेश था , जिसे उन्होंने ‘ सप्त सैंधव ‘ प्रदेश नाम दिया ।
धीरे धीरे उत्तरवैदिक काल में आर्यो ने अपना विस्तार भू – भाग पर कर लिया ।
ई . पूर्व 1000 ई . के आस – पास लौह निर्मित्त अस्त्रों की सहायता से आर्यों ने गंगा – यमुना दोआब जैसे अत्यधिक उपजाऊ क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया ।

उत्तरवैदिक काल में आर्य सभ्यता के चार प्रमुख क्षेत्र निम्न थे

  1. ब्रह्मवर्त। : कुरूक्षेत्र के आस – पास का क्षेत्र
  2. ब्रह्मर्षिदेश : गंगा यमुना दोआब का क्षेत्र
  3. मध्य देश : हिमालय तथा विंध्य के मध्य का क्षेत्र
  4. आर्यावर्त : आर्यों का संपूर्ण क्षेत्र

वैदिक सभ्यता का सामाजिक जीवन

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उत्तरवैदिक काल का समाजिक जीवन

‘ऋग्वैदिक आर्यो का सामाजिक जीवन सादगीपूर्ण , समानता पर आधारित एवं पवित्र था । संपूर्ण सामाजिक संगठन आर्य ‘ अनार्य ‘ दो वर्गों में विभक्त था ।

ऋग्वैदिक काल के अंतिम समय में समाज में चतुर्वर्ण व्यवस्था का आविर्भाव हुआ था । ऋग्वेद के 10 वें ( अंतिम ) मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार चार वर्णों का वर्णन है , जिसमें ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्रों की उत्पत्ति क्रमशः ब्रह्मा ( या सृष्टा ) के मुख , भुजाओं , जंघाओं एवं पैरों से होना बताई गई है ।

ऋग्वेद में जन्म पर आधारित या वंशानुगत सामाजिक वर्ण व्यवस्था का उल्लेख कहीं पर भी नहीं किया गया है । प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता , क्षमता एवं व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अपना व्यवसाय चुनने का पूर्ण अधिकार था । अत : ऋग्वैदिक काल में समाज में वर्ण आधारित असमानता के होने का प्रमाण मौजूद नहीं है ।

उत्तर – वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था ( चार वर्ण – ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र ) के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं । इस काल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गई , जो कि पूर्व में कर्म आधारित थी । चारों वर्गों में सामाजिक व धार्मिक स्तर पर भेद उत्पन्न हो गया । ब्राह्मण व क्षत्रियों की समाज में विशेष स्थिति हो गई ।
वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था , पिता अथवा बड़ा पुरुष परिवार का मुखिया होता था । संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन था । परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पूर्णनिष्ठा से पालन करता था ।


ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त था । स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी । घोषा , अपाला आदि इस काल की प्रमुख विदुषी महिलाएँ थीं । स्त्रियों में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी । महिलाएँ स्वतंत्र होने के बावजूद अपने परिवारजनों के संरक्षण व नियंत्रण में रहती थी । सती प्रथा के प्रचलन का उल्लेख भी ऋग्वैदिक काल में नहीं मिलता है ।
ऋग्वेद में पुत्री के लिए ‘ दुहिता ‘ शब्द का प्रयोग किया गया है । बाल विवाह प्रथा विद्यमान नहीं थी । पत्नी को पूरा सम्मान प्राप्त था , पत्नी के बिना यज्ञादि धार्मिक क्रिया – कलाप पूरे नहीं होते थे । महिलाएं अपने पति के साथ धार्मिक समारोहों , अनुष्ठानों एवं कबीलाई सभाओं में भाग लेती थी ।
पुत्रियों को भी पुत्र के समान , उपनयन , शिक्षा – दीक्षा का अधिकार था । उत्तर वैदिक काल में नारी की स्थिति निम्नतर होने लगी तथा उन्हें कुछ हद तक शिक्षा से वंचित किया जाने लगा ।

उत्तर वैदिक काल में स्त्री शिक्षा की स्थिति शोचनीय हो गई थी , लेकिन इस काल में भी गार्गी , मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाएँ हुई । उत्तर वैदिक काल में महिलाओं का सभा एवं समिति नामक सभाओं में बैठने का अधिकार समाप्त हो गया ।
बाल विवाह का प्रचलन होने श्रा । ऐतरेय ब्राह्मण में पत्नी को मित्र कहा गया है ।

ऋग्वेदिक समाज एवं राज्य की सबसे छोटी इकाई परिवार थी । परिवार को ‘ कुल ‘ व परिवार के मुखिया को ‘ कुलप ‘ ( या ग्रहपति ) कहा जाता था । अनेक परिवारों को मिलाकर ‘ ग्राम ‘ का निर्माण होता था । ग्राम के प्रधान को ‘ ग्रामणी ‘ कहा जाता था । अनेक ‘ ग्रामों ‘ को मिलाकर एक ‘ विश ‘ का निर्माण होता था । विश ‘ के सर्वोच्च अधिकारी को ‘ विशपति ‘ कहा जाता था । अनेक ‘ विशों को मिलाकर ‘ जन ‘ का निर्माण होता था । ‘ जन ‘ के सर्वोच्च अधिकारी को ‘ रक्षक ‘ , ‘ गोपति ‘ या ‘ राजन ‘ कहा जाता था , जिसका तत्कालीन राजनीतिक में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण व सर्वोच्च स्थान था ।

शिक्षा

वैदिक युग में शिक्षा ‘ श्रुति – कण्ठस्थ ‘ ( मौखिक ) व्यवस्था प्रणाली पर आधारित थी । ऋग्वेद के 7 वें मण्डल में शिक्षा से संबंधित उल्लेख है । विद्यार्थी के रूप में ‘ ब्रह्मचारी ‘ का उल्लेख ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में है । विद्यार्थी ‘ गृहवासी ‘ ( घर में रहकर शिक्षा प्राप्त करने वाले ) एवं ‘ अंतेवासी ‘ ( गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने वाले ) होते थे । सामान्यत : विद्यार्थी उपनयन संस्कार के बाद गुरु आश्रम रहकर विद्याध्ययन करता था । वेद – मंत्रों का मौखिक पाठ कराकर कण्ठस्थ किया जाता था ।

लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार था । स्त्री शिक्षा के लिए पृथक व्यवस्था नहीं थी । लड़कियाँ भी वैदिक गुरु आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करती थी । कई विदुषी महिलाओं यथा- लोमशा , लोपामुद्रा , पौलोमी , शची , सिकता , विश्वश्वरा , घोषा , अपाला आदि ने वैदिक ऋचाओं की रचना की थी ।

मनोरंजन

आर्यों को संगीत विशेष प्रिय था । वे सात स्वरों के ज्ञाता थे । उनके वाद्य यंत्रों में ‘ कर्करि ( वीणा ) ‘ , नाड़ी ( बाँसुरी ) , द्वन्द्वांभा ( ढोलक ) , शंख ( शृंग ) , झांझ ( आघट्ट ) एवं मृदंग इत्यादि थे । मेले एवं नृत्य तथा शिकार करना भी उनके मनोरंजन के साधन थे । पासे से जुआ भी खेला जाता था । घुड़दौड़ एवं रथदौड़ का आयोजन भी होता था

वस्त्राभूषण :

आर्य लोग तीन प्रकार के वस्त्र पहनते थे ( 1 ) अधिवास या दापि ( ऊपरी वस्त्र ) ( ii ) वास ( कमर के ऊपर शरीर का वस्त्र ) ( iii ) नीवी ( कमर के नीचे का अधोवस्त्र

उपवास या बना एक सूती , ऊनी , रेशमी एवं मृगचर्म से बने वस्त्रों का प्रचलन था । आर्यों द्वारा पहने जाने वाले प्रमुख वस्त्र हैं , ता H ( रेशमी वस्त्र ) , पाण्ड्य ( ऊनी वस्त्र ) , अधिवास ( चौगा ) , उष्णीय ( पगड़ी ) , कौशवास ( स्त्रियों का पहना जाने वाला रेशमी वस्त्र ) ( शॉल ) , वाधूय ( वधु द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र ) आदि । स्त्री व पुरुष दोनों स्वर्ण एवं चांदी से बने आभूषण पहनते थे । ऋग्वेद में निष्कग्रीव ( गले का हार ) , मणिग्रीव ( मोतियों का हार ) , कुरीर ( माँग का टीका ) , तथा कर्णशोभन , अथर्ववेद में कुम्ब ( सिर का आभूषण ) , मुद्रिका या खादि ( अँगूठी ) , प्रवर्त ( कान की बाली ) , रूक्म ( वक्ष का आभूषण ) आदि आभूषणों का उल्लेख मिलता है । भुजबंद , कर्णफूल एवं नुपूर स्त्री – पुरुष दोनों पहनते थे । स्त्री व पुरुष दोनों के केश विन्यास एवं केश प्रसाधन के उल्लेख ऋग्वेद में मौजूद हैं । स्त्रियों द्वारा वेणी बनाने एवं भिन्न – भिन्न शैली में बाल बनाने का प्रचलन था । पुरुषों में दाढ़ी बढ़ाने की प्रथा विद्यमान थी । उस्तरे के लिए संभवतः ‘ क्षुर ‘ तथा नाई के लिए ‘ वाप्तृ ‘ शब्द का उल्लेख है ।

खान – पानः

ऋग्वैदिक काल में लोगों का मुख्य भोजन दूध एवं दूध से बने पदार्थ जैसे खीर , दही , घी आदि थे । अनाज को पीसकर या सेक कर दूध व घी के साथ ग्रहण किया जाता था क्षीरपाक मोदनं ( खीर ) , अपूपंघृतवंत ( मालपुए या पूड़ी ) , करंम ( जौ का सत्तू ) तथा मट्ठा ( दही को मथकर बना पेय ) तैयार कर बड़े शौक से खाया जाता था । ऋग्वेद में एक स्थान पर आर्यों द्वारा मांस सेवन का भी उल्लेख मिलता है ।

गाय को अन्ध्या ( वध न करने योग्य ) कहा गया है । आर्यों में ‘ सोमरस ‘ का अत्यधिक बलवर्धक , विद्या एवं बुद्धि प्रदायक एवं गुणकारी पेय के रूप में प्रचलन था । ऋग्वेद के 9 वें मंडल में सोम देवता की स्तुति में अनेक सूक्त रचित हैं सुरापान के प्रचलन के उल्लेख भी हैं , परन्तु इसे निंदनीय व त्याज्य कहा गया है ।

उत्तर वैदिक काल में भी लोगों का खान – पान पूर्व की भाँति ही था , परन्तु कुछ नये – नये व्यंजन यथा क्षीरोदन , तिलोदन , अपूप , ब्रह्मोदन आदि प्रयुक्त किये जाने लगे । सामान्यत : इस काल में भी सुरापान व मांस भक्षण को अनुचित माना जाता था ।

वैदिक लोगों का आर्थिक जीवन

वैदिक लोगों का ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था प्रधानतः ग्राम्य जीवन आधारित थी ।भूमि के दो प्रकार थे – उर्वरा ( उपजाऊ ) एवं खिल्प ।
लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत पशुपालन एवं कृषि उर्वरा भूमि व्यक्तिगत स्वामित्व की थी तथा खिल्प भूमि पर संपूर्ण ग्राम का स्वामित्व होता था । ‘ हल ‘ का प्रयोग होता था । हल हेतु ‘ वृक ‘ या ‘ लांगल ‘ शब्द का उल्लेख मिलता है । सामान्यतः कुएँ ( अवट ) से सिंचाई की जाती थी ।

संभवतः नाली या नहर ( कुल्या ) की पद्धति विद्यमान थी । वर्ष में दो । फसलें ली जाती थी । वर्षा पर निर्भरता अधिक थी ।

ऋग्वेद में बादलों को ‘ पर्जन्य ‘ कहा गया है । उत्तरवैदिक काल में बढ़ती जनसंख्या के भरण – पोषण हेतु अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि की विभिन्न पद्धतियों एवं तकनीकों का विकास हुआ । खाद का उपयोग प्रारंभ हुआ । सिंचाई हेतु कुएँ , नहर एवं वर्षा का पानी प्रयुक्त होता था । उन्नत कृषि उपकरणों का विकास हुआ । कृषि भूमि पर कृषक का व्यक्तिगत स्वामित्व स्थापित हुआ तथा बड़े भूमिपतियों की संख्या बढ़ी ।

पशुपालन भी पूर्व की भाँति दूसरा महत्त्वपूर्ण आजीविका निर्वाह साधन था । गाय का महत्त्व यथावत था । बैल भी पूज्य हो गया । हाथी , घोड़ा , कुत्ता , बकरी , भैंस , गधा , भेड़ आदि भी पाले जाते थे ।

कृषि

वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्यत : पशुपालन एवं कृषि पर आधारित थी । ऋग्वेद के प्रथम , चौथे एवं दसवें मंडल में

कृषि विषयक तथ्य मिलते हैं । प्रारंभ में आर्यों को ‘ यव ‘ ( जौ ) एवं धान्य ‘ एवं गोधूम ( गेहूँ ) अनाजों की जानकारी थी ।
गेहूँ ( गोधूम ) का उल्लेख बाद के वेदों में अधिक मिलता है । उत्तर – वैदिक ग्रंथों में उड़द ( भाष ) , वृहि ( चावल ) , मृदग ( मूंग ) , मसूर , ईक्ष ( गन्ना ) , कपास , तिल आदि का उल्लेख भी है । शतपथ ब्राह्मण में कृषि – विषयक पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है ।
ऋग्वेद में भूमि की माप की इकाई के रूप में ‘ खिल्य ‘ उल्लेख है ।

पशुपालन

पशुपालन ऋग्वैदिक आर्यों की आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत था । पशुधन समृद्धि का प्रतीक था । आर्यों को गाय , घोड़ा , भेड़ – बकरी , बैल , हाथी , कुत्ता , भैंस , गधा , ऊँट आदि पशुओं की जानकारी थी । ‘ गाय ‘ ऋग्वैदिक काल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु थी ।

‘ गोदान ‘ श्रेष्ठ माना जाता था । गाय को विनिमय का माध्यम ( मुद्रा ) के रूप में प्रयोग किये जाने का उल्लेख मिला है । घोड़ा भी आर्यों का महत्त्वपूर्ण पालतू पशु था । इसे सवारी , घुड़दौड़ एवं रथ संचालन में प्रयुक्त किया जाता था । घोड़े का दान भी महत्त्वपूर्ण माना जाता था । अर्थवेद में सिंह , व्याघ्र आदि जंगली जानवरों का उल्लेख भी है । कृषि का पर्याप्त विकास होने के बाद उत्तरवैदिक काल में पशुपालन आजीविका कृषि के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्रोत हो गया । पक्षियों को ऋग्वेद में ‘ वायव्य ‘ कहा गया है ।

व्यापार वाणिज्य :

परवेद में ‘ वासोवाय ‘ ( वस्त्र बुनकर ) , त औरत्वाट , ‘ तक्षा ‘ या त्वष्टा ( बढ़ई ) , चर्मण्ण ( मोची ) , वैद्य , कुलाल ( मृदुभाण्ड बनाने वाले ) , करि ( धातुशिल्पी ) , सुनार ( हिरयण्कार ) , वास ( नाई ) आदि व्यवसायों का उल्लेख है । ऋग्वैदिक आर्यों को सोना एवं ताँबा धातु की जानकारी थी । चाँदी का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है ऋग्वेद में नहीं । आर्यों ने लोहे को उपयोग में लिया था । लोहे के लिए अथर्ववेद में ‘ श्याम या कृष्ण अयस ‘ तथा ताँबे के लिए लोहित अयस शब्द काम में आया है । ‘ हिरण्य ‘ शब्द स्वर्ण हेतु प्रयुक्त हुआ है , जिससे आभूषण व निष्क ( मुद्रा ) बनाये जाते थे । ऋग्वेद में चमड़े के व्यवसाय का उल्लेख भी आया है । उत्तर वैदिक काल में शीशा , टिन ( पु ) , चाँदी आदि धातुओं के उपयोग से धातुकर्म व्यवसाय उन्नत हुआ ।


व्यापारियों के लिए ऋग्वेद में ‘ पणि ‘ , ‘ वणिज ‘ एवं ‘ वणिक ‘ आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
सूत के लिए ‘ तन्तु ‘ शब्द प्रयोग किया जाता है । वैदिक काल में फारस की खाड़ी वाले देशों से व्यापार करने वाले व्यापारियों को ‘ देवपणि ‘ कहा गया है ।
इस काल में वस्त्र बुनाई का कार्य प्रमुख शिल्प था । इस हेतु करघा या तसर प्रयुक्त किया जाता था । कपड़ों पर कढ़ाई व बुनाई करने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं । बुनाई कार्य मुख्यतः महिलाएँ करती थी , परन्तु पुरुषों द्वारा भी बुनाई कार्य किया जाता था ।
कुंभकार द्वारा ‘ चाक ‘ ( कुलाल ) से बर्तन बनाने का उद्योग भी विद्यमान था । बैलगाड़ी एवं घोडागाड़ी का प्रयोग यातायात हेतु किया जाता था । जल मार्ग में पालदार नौकाएँ प्रयुक्त की जाती थीं । वैदिक काल में अनाज , वस्त्र एवं चमड़े का व्यवसाय भी उन्नत अवस्था था । धन का उधार के रूप में लेन – देन भी संभवतः प्रचलित था । ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था एक निर्वाह प्रधान अर्थव्यवस्था थी

ऋग्वैदिक काल में व्यापार छोटे स्तर पर था तथा मुख्यतः वस्तु विनिमय प्रणाली ( Barter System ) प्रचलित थी । वस्तु विनिमय के माध्यम के रूप में ‘ गाय ‘ सर्वाधिक प्रचलित थी एवं घोड़े व निष्क ( स्वर्ण मुद्रा ) का प्रयोग भी वस्तु विनिमय के माध्यम के रूप में किया जाता था । धातुओं को गलाकर उसे पीटकर विभिन्न वस्तुएँ बनाने के कार्य ( धातुकर्म ) में आर्य लोग कुशल थे । उत्तर वैदिक काल में आर्यों की ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था में कुछ नगरों का विकास हुआ । नगरों में व्यापार – वाणिज्य का पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता है । काशी , मथुरा , विदेह आदि प्रमुख व्यावसायिक नगर के रूप में विकसित हो गये थे । व्यापारियों के प्रधान को ‘ श्रेष्ठिन ‘ कहते थे ।

तौल की प्रगति मुख्य इकाई कृष्णल थी । अथर्ववेद में घुमन्तु व्यापारियों के उल्लेख है । उत्तरवैदिक काल में व्यापार – वाणिज्य की अच्छी हुई ।
  व्यापारियों की एक श्रेणी का प्रधान श्रेष्ठिन् ‘ कहलाता था । व्यवसाय क्रमशः वंशानुगत होने लगे थे । लौहे के अत्यधिक प्रयोग ने आर्यों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था ।
 
इस काल में श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण प्रणाली का विकास प्रारंभ हो चुका था । लौह एवं अन्य धातुओं के उद्योगों के साथ – साथ गृह एवं कुटीर उद्योगों का भी पर्याप्त विकास होने लगा था ।

उत्तरवैदिक काल में आर्यजन गंगा – यमुना के दोआब में स्थाई रूप से बस गये तथा पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन होने लगा । व्यापार स्थल मार्ग एवं जल मार्ग ( दोनों से ) से होता था । निष्क , हिरण्यपिंड एवं मनु “ माप एवं मूल्य ” की इकाइयाँ थी ।
उत्तरवैदिक काल में शतमान एवं कृष्णाल भी मूल्य की इकाइयों के रूप में प्रचलित हो गये थे ।

दाह – संस्कार :

दाह – संस्कार का प्रचलन भारतीय महाद्वीप में सर्वप्रथम स्वातघाटी में मिला है । वैदिक काल में दाह संस्कार की प्रथा विद्यमान थी । दाह – संस्कार के बाद हड्डियों को दफनाया भी जाता था । मृतकों के साथ पशुओं के दाह संस्कार का उल्लेख भी वैदिक ग्रंथों में है । ऋग्वेद के 5 सूक्तों में दाह संस्कार का उल्लेख है ।

अंतर्विवाह

ऋग्वैदिक आर्यों के विभिन्न वर्गों में अन्तर्विवाह पर प्रतिबन्ध नहीं था । प्रारंभ में आर्यों का कबिलाई समाज तीन वर्गों योद्धा ( क्षत्रिय ) , पुरोहित ( ब्राह्मण ) एवं सामान्य जन में विभाजित के सामान के मतों विभाजन , शूद्र ‘ , ऋग्वैदिक काल के अंत में हुआ ।

ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्रशब्द का उल्लेख हुआ

उत्तर वैदिक काल में कुछ व्यवसाय तथा शिल्पों ने जाति का रूप ले लिया । जैसे कि वाप्त ( नाई ) , तक्षा ( बढ़ई ) , भीषक ( वैद्य ) , कर्मार ( लौहार ) , चर्माण्ण ( चमड़े का काम करने वाले ) , रथकार , कुलाल ( मिट्टी के बर्तन बनाने वाले ) आदि ।
गौत्र प्रथा उत्तरवैदिक काल में अस्तिव में आई । इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में है । इसी काल में एक गोत्र ( सगोत्र ) में विवाह न करने की प्रथा प्रारंभ हुई ।

दास प्रथा

ऋग्वैदिक काल से ही दास प्रथा विद्यमान थी । अधिकतर दास महिलाएँ थी , जिन्हें घरेलू काम – काज में लगाया जाता था तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था।

  • ऋगवैदिक काल में आर्य कवियों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण करते रहते थे परन्तु उत्तरवैदिक काल में ग्वैदिक काल में आर्य कबीलों के रूप में एक स्थान से दूसरे ये एक क्षेत्र विशेष में स्थायी रूप से रहने लगे तथा ऋग्वैदिक ‘ जन ‘ अब ‘ जनपदों में रूपान्तरित हो गए ।
    पांचाल , कुरु , काशी , कौशल , विदेह , मत्स्य , चेदि , मगध अंग आदि इस काल के प्रमुख जनपद थे ।
  • ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ में राजव्यवस्था गणतंत्रात्मक थी , जो बाद में वंशानुगत ( राजतंत्रात्मक ) हो गई ।
  • राजा जिन मंत्रियों की सहायता से कार्य करता था , उन्हें ‘ रत्निन ‘ कहा जाता था ।
  • घोड़ा शक्ति का प्रतीक था । घोड़े एवं रथ के प्रयोग से आर्यों को अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार में सहायता मिली । युद्धों में घोड़े के प्रयोग ने उन्हें व्यापक सफलता प्रदान की ।
  • वैदिक काल में पशु बलि का भी प्रचलन था । शतपथ ब्राह्मण आदि में यज्ञ में घोड़ों , सूअरों व भेड़ों की बलि देने के उल्लेख मिलते हैं । ।
  • ऋग्वैदिक काल में अग्निदेव एक महत्त्वपूर्ण देवता थे , परंतु उनकी स्वतंत्र देवता के रूप में पूजा नहीं की जाती थी ।
  • आर्य लोहे से परिचित थे । कृषि औजार लोहे व लकड़ी से बने होते थे । लोहे को ‘ कृष्ण अयस ‘ कहा जाता था ।
  • व्यापारी को ‘ पणि ‘ कहा जाता था । व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था । गाय मूल्य की प्रमाणिक ईकाई थी ।

आश्रम व्यवस्थाः

ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी । उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ । आश्रम प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ ऐतरेय ब्राह्मण ‘ में मिलता है।जबाला उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने 4 आश्रमों का प्रतिपादन किया है । यह आश्रम व्यवस्था उत्तरवैदिक काल में प्रतिपादित हुई थी । इसमें मनुष्य की संपूर्ण जीवन आयु 100 वर्ष मानकर निम्न चार आश्रम निर्धारित किए गए

1. ब्रह्मचर्य आश्रम ( 25 वर्ष की आयु तक ) – इसमें व्यक्ति विद्याध्ययन करता था ।
2. .गृहस्थाश्रम ( 25-50 वर्ष ) -इसमें व्यक्ति विवाह कर जीविकोपार्जन करते हुए गृहस्थी का निर्वहन करता था ।
3. वानप्रस्थाश्रम ( 50-75 वर्ष ) – इसमें व्यक्ति को वन की और गमन करना होता था ।
4. संन्यासाश्रम ( 75-100 वर्ष ) – इसमें व्यक्ति को सांसारिक मोह माया त्यागनी होती थी । आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे बल्कि बड़े – बड़े यज्ञ करते थे । चार वर्ण : ऋग्वैदिक काल के आरंभ में तीन वर्ण ( ब्राह्मण प्रिय एवं वैश्य ) थे ।

आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे बल्कि बड़े – बड़े यज्ञ करते थे ।

वैदिक सभ्यता में वर्णों का उल्लेख

ऋग्वैदिक काल के आरंभ में तीन वर्ण ( ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य ) थे ।

चार वर्ण

ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार निम्न चार वर्णों का उल्लेख मिलता है

  1. ब्राह्मण : ब्राह्मण वे थे , जिनकी उत्पत्ति आदि पुरुष ( ब्रह्मा ) के मुख से हुई है । ब्राह्मण वर्ण का समाज में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था । इनका मुख्य कार्य वेदों का पठन पाठन करना , भिक्षा तथा दान ग्रहण करना तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना था ।
  2. क्षत्रिय : क्षत्रियों की उत्पत्ति आदि पुरुष की भुजाओं से हुई मानी जाती है । इस वर्ण का कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना तथा देश अथवा राज्य को आंतरिक सुरक्षा प्रदान करना था ।
  3. वैश्य : वैश्य की उत्पत्ति आदि पुरुष की जंघाओं से हुई । यह कृषि , पशुपालन , उद्योग – धन्धे और विभिन्न व्यवसायों में संलग्न वर्ण था । •
  4. शूद्र : इनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के चरणों से हुई मानी जाती है । यह प्राचीन भारतीय समाज का चौथा वर्ण था । आर्यों द्वारा विजित दास धीरे – धीरे वर्ण बन गये । इसका समाज में निम्नतम स्थान था । तीनों वर्गों की सेवा करना शूद्र का मुख्य कार्य था ।

प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी , लेकिन उत्तरवैदिक काल में धीरे – धीरे यह जन्म पर आधारित हो गई ।

वैदिक सभ्यता में धर्म

वैदिक आर्यों का धर्म एकाधिदेववाद था , जिसमें एक देवता प्रमुख देवता माना जाता था , अन्य देवताओं की स्तुति भी साथ में की जाती थी ।
यह एकेश्वरवाद एवं बहुदेववाद के मध्य की स्थिति थी । आर्यों ने विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय शक्ति के रूप में मानवीय / पशु रूपी गुण प्रदान कर पूजना प्रारंभ कर दिया था ।

वैदिक सभ्यता के प्रमुख देवता

आरंभिक ऋग्वैदिक काल में प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को दैवीय रूप देकर उनकी पूजा की जाती थी , अतः बहुदेववाद का प्रचलन था ।

प्रारंभिक काल में ‘ द्यौस ‘ ( आकाश ) एवं ‘ पृथ्वी ‘ को समस्त जगत का पिता एवं माता मानकर उनकी स्तुति की गई ।
बाद में ‘ वरुण ‘ देवता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ । इसे त्रिकालदर्शी , ऋत का स्वामी एवं आकाश , सूर्य एवं पृथ्वी का निर्माणकर्ता माना गया । परंतु उसके बाद ऋग्वैदिक काल का मुख्य देवता इन्द्र ( अथवा पुरन्दर ) हो गया था ।
ऋग्वेद के 250 सूक्त इन्द्र को समर्पित हैं । यह युद्ध एवं वर्षा का देवता था । युद्ध से पूर्व आर्य इन्द्र का आह्वान करते थे ।
इस काल में अग्नि दूसरा प्रमुख देवता था । यह मनुष्यों एवं देवताओं के बीच मध्यस्थ था । वह यज्ञ में अर्पित किये गये उपहारों एवं हवि को देवताओं तक पहुँचाता था ।
वरुण जल का देवता था तथा ऋतु का पालक था । प्रकृति की सभी व्यवस्थाएँ वहीं करता था ।

‘ सोम ‘ ‘ पौधों का देवता ‘ था । एक मादक पेय का नाम उसके नाम पर था ।
इनके अलावा अन्य ऋग्वैदिक देवता थे- सूर्य , प्रभात ( उषा ) , रात्रि , तड़ित आदि ।
इस काल की मुख्य देवियाँ थी- उषा ( नव प्रेरणा संचारक व प्रातः काल की देवी ) , अदिति ( प्रकृति की देवी ) , अरण्यानी ( जंगल की देवी ) , निर्रती ( पतन एवं मृत्यु की देवी ) तथा सरस्वती ( ज्ञान एवं बुद्धि की देवी ) आदि थी ।

ऋग्वेद में बहुदेववाद , एकाधिदेववाद , ऐकेश्वरवाद एवं अद्वैतवाद के उदाहरण मिलते हैं ।
उत्तरवैदिक काल में प्रजापति ( सृष्टा ) , विष्णु एवं रूद्र जैसे नये देवता पूर्व के इन्द्र व अग्नि देवताओं से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये ।
शूद्रों के लिए पुषन ( मवेशियों का देवता ) देवता निर्धारित किए गये । ऋग्वैदिक काल में व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर प्रार्थना की जाती थी ।
ऋग्वेद में यज्ञ को देवताओं के मिलन का सांसारिक स्थान कहा गया है ।
यज्ञ दो प्रकार के होते थे –
1 . नित्य यज्ञ इसमें पंचमहायज्ञ शामिल थे । ये पंच महायज्ञ थे ब्रह्मयज्ञ , देवयज्ञ , पितृयज्ञ , भूतयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ ।
2 . नैमितिक यज्ञ – ये विशिष्ट ल्क्ष्यों की पूर्ति हेतु पुरोहितों की सहायता से सम्पन्न होते थे ।
इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में यज्ञ का धार्मिक कर्मकाण्डों में महत्त्वपूर्ण स्थान था । मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का प्रमाण नहीं मिला है । उत्तरवैदिक काल में पूजा पद्धति में परिवर्तन हुआ ।

प्रार्थनाओं की तुलना में जारी का काम पेशागत तथा वंशानुगत हो गया था ।
यज्ञों एवं आदि ।
यज्ञों का महत्त्व अधिक हो गया । यज्ञ विधान अधिक जटिल हो गये । यज्ञों में बड़े पैमाने पर पशु – बलि दी जाने लगी थी ।
अनुष्ठानों तथा कर्मकाण्डों पर अधिक बल दिया जाने लगा ।
उत्तरवैदिक काल में राजसूय , वाजपेय एवं अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान अधिक किया जाने लगा । यज्ञ कर्म एवं बलि विधानों में हुए परिवर्तनों से पुरोहितों का महत्त्व अत्यधिक हो गया था। तथा यज्ञ पुरोहित पर निर्भर हो गए यज्ञ क्रमशः पशु वध के साधन बन गये थे।
जादू -टोने एवं अंध विश्वासों का प्रचलन शुरू हो चुका था । लोग इन्द्रजाल , वशीकरण मंत्र आदि में विश्वास करने लगे थे ।
उत्तरवैदिक काल के अन्त तक एके श्वरवादी विचारधारा बलवती हुई जिसे उपनिषदों में प्रधानतः स्वीकार किया गया । उपनिषदों में पुरोहितों के बढ़ते प्रभाव व धार्मिक कर्मकाण्ड व अनुष्ठानों के विरुद्ध तार्किक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की गई तथा स्पष्टतः यज्ञों एवं कर्मकांडों की निन्दा की गई ।

इनमें ‘ ब्रह्म ‘ को एकमात्र ईश्वरीय सत्ता स्वीकार किया गया तथा उसे निर्विकार , अद्वैत एवं निरपेक्ष बताते हुए उसका व्यक्ति के सारभूत तत्त्व आत्मा से एकात्म्य स्थापित किया गया ।

ब्रह्मा को सृष्टि का मूल तत्व एवं सर्वशक्तिमान सत्ता माना गया। उपनिषदों में अब ऋग्वैदिक कर्मकांड एवं प्रवृत्ति वादी मार्ग के स्थान पर ज्ञान मार्ग एवं निवृत्ति वादी मार्ग की प्रतिस्थापना की गई।

वैदिक सभ्यता में राजव्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में कुल अथवा परिवार राजनैतिक संगठन की सबसे छोटी व मौलिक इकाई थी। तथा इसका प्रमुख ‘ कुलय ‘ या ‘ गृहपति ‘ था ।
इसके ऊपर अनेक कुलों से बनी इकाई ग्राम ( गाँव ) थी , जिसका मुखिया ग्रामणी होता था ।
उस समय तक राज्य की कल्पना उभर कर नहीं आई थी । लोगों के समूह ‘ जनों में विभक्त थे ।

कई ग्रामों को मिलाकर विष बनता था जिसका प्रमुख विषपति था।

कई ग्रामों को सबसे बड़ी राजनैतिक इकाई ‘ जन ‘ ( अथवा एक कबीला ) थी । कबीले का प्रमुख ‘ राजन् ( राजा ) होता था । राजा की सहायतार्थ मंत्रि परिषद् के साप में पुरोहित , सेनानी , महिणी आदि का उल्लेख मिलता है ।
राजा का निर्वाचन समिति ( सामान्य लोगों की सभा ) द्वारा किया जाता था । धीर – धीरे कई जनों को मिलाकर रराष्ट्र ‘ की अवधारणा विकसित होने लगी थी । ऋग्वेद के 10 वें मंडल में राष्ट्र का उल्लेख मिलता है ।


उत्तरवैदिक काल में कई ‘ जनों ‘ को मिलाकर राष्ट्रों ( जनपदों या क्षेत्रीय राज्यों ) का निर्माण हुआ ।
इसमें लोहे ने महत्त्वूर्ण भूमिका निभाई । कृषि उपज का एक भाग राजस्व के रूप में देना ( बलि ) अनिवार्य हो गया था ।
‘ गण ‘ के प्रमुख ‘ गणपति ‘ का निर्वाचन होने के स्पष्ट प्रमाण नहीं है उसे अपना पद बनाये रखने हेतु लोकमत एवं प्रतिनिधियों ( रत्नीन ) का विश्वास प्राप्त करना आवश्यक रहा होगा ।
मंत्रि परिषद् के रूप में ‘ रत्नियों ‘ की नियुक्ति होती थी , जिसमें लगभग 12 सदस्य होते थे । राजा राज्याभिषेक पर सभी रत्नियों के घर जाकर उनका विश्वास प्राप्त करता था । ये रत्निन निम्न थे

  1. सेनानी- ( प्रधान सेनापति ) , इसके यहाँ राजा ‘ अग्नि ‘ की पूजा करता था ।
  2. पुरोहित- इसके यहाँ राजा बृहस्पति की पूजा करता था ।
  3. महिषी- इसके यहाँ भी राजा बृहस्पति की पूजा करता था
  4. सूत ( सारथि ) – इसके यहाँ राजा वरुण की पूजा करता था ।
  5. ग्रामणी- ( गाँव का प्रधान ) ।
  6. क्षत्- इसके यहाँ सावित्र की पूजा होती थी।
  7. संग्रहीत- इसके यहाँ अश्विनी की पूजा होती थी
  8. भागदुध- ( बंटवारा करने वाला ) – इसके यहाँ पूषन की पूजा होती थी ।
  9. अक्षावाप- ( राजा के साथ पासा खेलने वाला ) – इसके यहाँ भी पूषन की पूजा होती थी ।
  10. पालागल- ( संदेश ले जाने वाला ) ।
  11. परिवृक्ति ( त्यागी गयी रानी ) – इसके यहाँ नैऋतु की पूजा होती थी ।
  12. गोविकर्त

उपरोक्त के अलावा ‘ राजा ‘ भी रत्निन सूची में होता था । प्रारम्भ में राजा की सहायतार्थ पुरोहित , सेनानी एवं ग्रामणी प्रमुखी पदाधिकारी थे । पुरोहित युद्ध एवं शांति दोनों में राजा का परामर्शदाता एवं पद प्रदर्शक होता था । स्पटा ( गुप्तचर , दूत ) एवं पुरप ( दुर्गपति ) आदि अन्य कर्मचारी भी थे ।

सभा ‘ एवं ‘ समिति ‘ दो प्रमुख वैदिक कालीन राजनीतिक संस्थाएँ थी । वैदिक काल में राजन् ( राजा ) का पद सर्वोच्च होता था परन्तु वह स्वेच्छाचारी , निरंकुश व लोकमत विरोधी न हो , इस हेतु ऋग्वेद में सभा व समिति की विद्यमानता थी । ये दोनों सभाएँ राजा पर अंकुश रखती थी ।

वैदिक काल में राजसभा

यह बड़े – बूढ़ों ( राज्य के वरिष्ठ , संभ्रान्त एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों ) की एक छोटी संस्था होती थी । प्रारम्भ में इसमें स्त्रियाँ भी भाग लेती थीं लेकिन बाद में इनका भाग लेना बंद हो गया था । सभा में राजनीतिक तथा प्रशासनिक चर्चायें होती थीं । यह वर्तमान राज्य सभा का एक स्वरूप थी । इसमें न्यायिक कार्य भी किये जाते थे । इसके सदस्य सुजान ‘ कहलाते थे । अथर्ववेद में इस सभा को ‘ नरिष्टा ‘ कहा गया है

समिति

यह अपेक्षाकृत बड़ी सभा थी , जो सामान्य लोगों की जन सभा होती थी । राजा का निर्वाचन करना इसका मुख्य कार्य था । इसके अलावा राजा समिति में नियमित उपस्थित होते थे तथा ज्ञान की चर्चाएँ भी होती थीं । इसका अध्यक्ष ‘ ईशान ‘ कहलाता था । यह आधुनिक लोकसभा के समान थी

विदभ

विदथ ऋग्वैदिक कालीन सबसे प्राचीन संस्था थी । यह एक जनसभा थी , जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों लेते थे । यह संस्था सामाजिक , धार्मिक व सैन्य उद्देश्यों के लिए विचार – विमर्श करती थी ।

उत्तरवैदिक काल में शनैः शनैः राजा का पद वंशानुगत हो गया था तथा शासन पद्धति राजतंत्रात्मक की ओर

प्रवृत्त हुई । विशाल राज्यों के गठन के कारण राजा के अधिकारों में स्वेच्छाचारिता में वृद्धि हुई परन्तु उसकी निरंकुशता पर यथावश्यक प्रतिबंधों के प्रमाण भी मिलते हैं । सभा एवं समिति नामक राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से राजा पर कुछ मात्रा में नियंत्रण होता था , परन्तु इनका महत्त्व धीरे – धीरे कम होने लगा था । राजा का विधि – विधानपूर्वक राज्याभिषेक होता था। ।

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