सफला एकादशी व्रत कथा- Saphala Ekadashi Vrat Katha.

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सफला एकादशी व्रत कथा- सफला एकादशी पौष मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी है। एकादशी का व्रत सभी व्रतों में सबसे श्रेष्ठ होता है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो भी मनुष्य एकादशी का व्रत करते हैं वे उन्हें बहुत प्रिय है। सफला एकादशी का व्रत पूरे विधि विधान से करने पर अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है। सफला एकादशी के महत्व के बारे में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था आइए सुनते हैं सफला एकादशी की व्रत कथा…..

सफला एकादशी व्रत कथा

सफला एकादशी व्रत कथा- एक समय चम्पावती नगरी में  महिष्मान नामक राजा शासन करता था। राजा के चार पुत्र थे तथा उन सबमें लुम्पक नाम वाला बड़ा राजपुत्र महापापी था। लुम्पक सदा परस्त्री और वेश्यागमन तथा दूसरे बुरे काम करता था और इन कामों में अपने पिता का धन लुटाता था। वह हमेशा देवता, बाह्मण, भक्तो, वैष्णवों की निंदा करता था। जब राजा महिष्मान को अपने बड़े पुत्र के ऐसे कुकर्मों का पता चला तो उन्होंने उसे राज्य से निकाल दिया। पिता के राज्य से बाहर निकल देने पर लुंपक सोचने लगा की अब कहाँ जाऊँ? और क्या करूँ? फिर उसने चोरी करने का निश्चय किया।

सारे दिन लुंपक जंगल में छुपा रहता और रात्रि होते ही अपने पिता के राज्य में जाता और वहां पर चोरी करता और वापस जंगल में आकर छुप जाता। लुम्पक के द्वारा चोरी करने पर सारी चंपावती नगरी में चोरी का भय व्याप्त हो गया। लोगों ने लुम्पक को पहचान लिया किंतु राजा के पुत्र होने के कारण वह उसे कुछ नहीं कहते थे। वह जंगल में रहकर पशुओं को मारकर खाने लगा। तथा पीपल के वृक्ष के नीचे रहने लगा। लोग पीपल की पूजा करते थे, किंतु लुम्पक के भय के कारण उन्होंने वहां जाना बंद कर दिया।

पौष मास के कृष्ण दशमी को जंगल में सर्दी के कारण उसका पूरा शरीर अकड़ गया उसके पास पहनने के लिए कपड़े भी नहीं बचे थे। पौष की भयानक सर्दी के कारण सुबह तक लंपक मूर्छित हो गया। दिन में धूप की वजह से उसकी मूर्छा टूटी तो भोजन की तलाश में इधर-उधर घूमने लगा किंतु उसकी हालत अब ना तो भोजन चोरी की नहीं रही थी और न ही पशुओं को मारकर खाने की। वह थक हार कर वापस उसी पेड़ के नीचे आकर बैठ गया तब तक सूर्यास्त हो चुका था। उस दिन पौष मास की कृष्ण एकादशी सफला एकादशी का दिन था उसे कुछ फल मिले तो उसने उन फलों को खाया नहीं हो और भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया और कहने लगा कि हे भगवान! अब आप ही इसे स्वीकार करें ।

सारे दिन भोजन नहीं मिलने के कारण रात्रि में उसे भूख के चलते बहुत कष्ट झेलने पड़े। वह सो भी नहीं सका। उसके उपवास और भगवान के प्रति उसकी श्रद्धा के कारण भगवान विष्णु उनसे बहुत प्रसन्न हुए और उसको सभी पापों से मुक्त कर दिया। और जब सुबह हुई तो एक बहुत ही सुसज्जित सुंदर घोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया।और आकाशवाणी हुई कि हे राजपुत्र लुम्पक! भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो गए हैं। अब तुम अपने पिता के पास जाओ और अपना राज्य प्राप्त करो। यह आकाश वाणी सुनकर लुम्पक बहुत प्रसन्न हुआ।

लुम्पक उस घोड़े पर सवार होकर अपने पिता के राज्य में गया और अपने पिता से सभी बात कही। उसके पिता बहुत प्रसन्न हुए और लुम्पक को अपना राज्य प्रदान किया और स्वयं वन में चले गए। लुम्पक अपने राज्य में शासन करने लगा और उसके शासन में उसका राज्य बहुत समृद्ध हुआ। वह रोज भगवान श्री नारायण की पूजा-अर्चना करता था । और जब वह बूढ़ा हुआ तो शासन अपने पुत्र को सौंप कर वन में चला गया और भगवान श्री हरि के नाम का जप किया जिससे अंत में उसे बैकुंठ की प्राप्ति हुई।

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