राजस्थान की कहानियां। Rajasthan ki kahaniyan. राजस्थान की कहानी।

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राजस्थान की कहानी। राजस्थान को वीरों की धरती कहा जाता है। राजस्थान में अनेकों राजा महाराजा हुए है और उनके किस्से आज भी प्रचलित है। उन्हीं में से हम लेकर आए हैं आपके लिए राजस्थान की कुछ रोचक कहानियां। तो आइए जानते हैं राजस्थान की कहानी (Rajasthan ki kahaniyan) –

रघुपति सिंह की सच्चाई – राजस्थान की कहानी ।

अकबर बादशाह की सेना ने राजपूताने के चित्तौडगढ़ पर अधिकार कर लिया था । महाराणा प्रताप अरावली पर्वत के वनों में चले गये थे । महाराणा के साथ राजपूत सरदार भी वन एवं पर्वतों में जाकर छिप गये थे । महाराणा और उनके सरदार अवसर मिलते ही मुगल – सैनिकों पर टूट पड़ते थे और उनमें मार – काट मचाकर फिर वनों में छिप जाते थे ।

महाराणा प्रताप के सरदारोंमें से एक सरदार का नाम रघुपतिसिंह था । वह बहुत ही वीर था । अकेले ही वह चाहे जब शत्रुकी सेना पर धावा बोल देता था और जबतक मुगल – सैनिक सावधान हों , तबतक सैकड़ों को मारकर वन – पर्वतों में भाग जाता था । मुगल – सेना रघुपतिसिंह के मारे घबरा उठी थी । मुगलों के सेनापति ने रघुपतिसिंह को पकड़नेवाले को बहुत बड़ा इनाम देने की घोषणा कर दी ।

रघुपतिसिंह वनों और पर्वतों में घूमा करता था । एक दिन उसे समाचार मिला कि उसका इकलौता लड़का बहुत बीमार है और घड़ी – दो – घड़ी में मरनेवाला है । रघुपतिसिंह का हृदय पुत्र को देखने के लिये व्याकुल हो गया । वह वनमें से घोड़ेपर चढ़कर निकला और अपने घरकी ओर चल पड़ा । पूरे चित्तौड़ को बादशाह के सैनिकों ने घेर रखा था । प्रत्येक दरवाजे पर बहुत कड़ा पहरा था ।

पहले दरवाजे पर पहुँचते ही पहरेदार ने कड़ककर पूछा – ‘ कौन है ? ‘ रघुपतिसिंह झूठ नहीं बोलना चाहता था , उसने अपना नाम बता दिया । इसपर पहरेदार बोला – ‘ तुम्हें पकड़ने के लिये सेनापति ने बहुत बड़ा इनाम घोषित किया है । मैं तुम्हें बन्दी बनाऊँगा । ‘ रघुपतिसिंह बोला – ‘ भाई ! मेरा लड़का बीमार है । वह मरने ही वाला है । मैं उसे देखने आया हूँ । तुम मुझे अपने लड़के का मुँह देख लेने दो । मैं थोड़ी देर में ही लौटकर तुम्हारे पास आ जाऊँगा । ‘ पहरेदार सिपाही बोला – ‘ यदि तुम मेरे पास न आये तो ? ‘ गढ़या पर्वत और उनके रघुपतिसिंह – ‘ मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अवश्य लौट आऊँगा ।

पहरेदार ने रघुपतिसिंह को नगरमें जाने दिया । वे अपने घर गये । अपनी स्त्री और पुत्र से मिले और उन्हें आश्वासन देकर फिर पहरेदार के पास लौट आये । पहरेदार उन्हें सेनापति के पास ले गया । सेनापति ने सब बातें सुनकर पूछा – ‘ रघुपतिसिंह ! तुम नहीं जानते थे कि पकड़ पानेपर हम तुम्हें फाँसी दे देंगे ? तुम पहरेदार के पास दोबारा क्यों लौट आये ? ‘

रघुपतिसिंह ने कहा – ‘ मैं मरने से नहीं डरता । राजपूत वचन देकर उससे टलते नहीं और किसी के साथ विश्वासघात भी नहीं करते । ‘ सेनापति रघुपतिसिंह की सचाई देखकर आश्चर्य में पड़ गया । उसने पहरेदार को आज्ञा दी – ‘ रघुपतिसिंह को छोड़ दो । ऐसे सच्चे और वीरको मार देना मेरा हृदय स्वीकार नही करता।

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भामाशाह का त्याग : राजस्थान की कहानी। Rajasthan ki kahani.

चित्तौड़ पर अकबर की सेनाने अधिकार कर लिया था । महाराणा प्रताप अरावली पर्वतके वनों में अपने परिवार तथा राजपूत सैनिकों के साथ जहाँ – तहाँ भटकते – फिरते थे । महाराणा तथा उनके छोटे बच्चों को कभी – कभी दो – दो , तीन – तीन दिनों तक घास के बीजों की बनी रोटी तक नहीं मिलती थी ।

चित्तौड़ के महाराणा और सोने के पलंग पर सोने वाले उनके बच्चे भूखे – प्यासे पर्वत की गुफाओं में घास पत्ते खाते और पत्थर की चट्टान पर सो रहते थे । लेकिन महाराणा प्रताप को इन सब कष्टों की चिन्ता नहीं थी । उन्हें एक ही धुन थी कि शत्रुओं से देशका – चित्तौड़ की पवित्र भूमिका उद्धार कैसे किया जाय ।

किसी के पास काम करनेका साधन न हो तो उसका अकेला उत्साह क्या काम आवे । महाराणा प्रताप और दूसरे सैनिक भी कुछ दिन भूखे – प्यासे रह सकते थे ; किन्तु भूखे रहकर युद्ध कैसे चलाया जा सकता है । घोड़ों के लिये , हथियारों के लिये , सेनाको भोजन देने के लिये तो धन चाहिये । महाराणा के पास फूटी कौड़ी नहीं थी । उनके राजपूत और भील सैनिक अपने देश के लिये मर – मिटने को तैयार थे ।

उन देशभक्त वीरों को वेतन नहीं लेना था ; किन्तु बिना धन के घोड़े कहाँ से आवें , हथियार कैसे बनें , मनुष्यों और घोड़ों को भोजन कैसे दिया जाय । इतना भी प्रबन्ध न हो तो दिल्ली के बादशाह की सेना से युद्ध कैसे चले । महाराणा प्रताप को बड़ी निराशा हो रही थी । अन्तमें एक दिन महाराणा ने अपने सरदारों से बिदा ली , भीलों को समझाकर लौटा दिया । प्राणों से प्यारी जन्म – भूमिको छोड़कर महाराणा राजस्थान से कहीं बाहर जाने को तैयार हुए ।

जब महाराणा अपने सरदारों को रोता छोड़कर महारानी और बच्चों के साथ वनके मार्ग से जा रहे थे , महाराणा के मन्त्री भामाशाह  घोड़ा दौड़ाते आये और घोड़े से कूदकर महाराणा के पैरों पर गिरकर फूट – फूटकर रोने लगे – ‘ आप हमलोगों को अनाथ करके कहाँ जा रहे हैं ? महाराणा प्रताप ने भामाशाह को उठाकर हृदय से लगाया और आँसू बहाते हुए कहा – ‘ आज भाग्य हमारे साथ नहीं है । अब यहाँ रहने से क्या लाभ ? मैं इसलिये जन्मभूमि छोड़कर जा रहा हूँ कि कहीं कुछ धन मिल जाय तो उससे सेना एकत्र करके फिर चित्तौड़ का उद्धार करने लौटू।

आपलोग तब तक धैर्य धारण करें । भामाशाह ने हाथ जोड़कर कहा – ‘ महाराणा ! आप मेरी एक प्रार्थना मान लें । ‘ राणा प्रताप बड़े स्नेह से बोले – ‘ मन्त्री ! मैंने आपकी बात कभी टाली है क्या ? ‘ भामाशाह के पीछे उनके बहुत – से सेवक घोड़ों पर अशर्फियों के थैले लादे ले आये थे । भामाशाह ने महाराणा के आगे उन अशर्फियों का बड़ा भारी ढेर लगा दिया और फिर हाथ जोड़कर बड़ी नम्रतासे कहा – ‘ महाराणा ! यह सब धन आपका ही है । मैंने और मेरे बाप – दादों ने चित्तौड़ के राजदरबार की कृपासे ही उसे इकट्ठा किया है । आप कृपा करके इसे स्वीकार कर लीजिये और इससे देशका उद्धार कीजिये ।

महाराणा प्रताप ने भामाशाह को हृदय से लगा लिया । उनकी आँखों से आँसू की बूंदें टपाटप गिरने लगीं । वे बोले – ‘ लोग प्रताप को देशका उद्धारक कहते हैं , किन्तु इस पवित्र भूमिका उद्धार तो तुम्हारे – जैसे उदार पुरुषों से होगा । तुम धन्य हो भामाशाह ? ‘ उस धनसे महाराणा प्रतापने सेना इकट्ठी की और मुगलसेना पर आक्रमण किया । मुगलों के अधिकार की बहुत – सी भूमि महाराणा ने जीत ली और उदयपुर में अपनी राजधानी बना ली । महाराणा प्रताप की वीरता जैसे राजपूताने के इतिहास में विख्यात है , वैसे ही भामाशाहका त्याग भी विख्यात है । ऐसे त्यागी पुरुष ही देशके गौरव होते हैं ।

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वीर सरदार : राजस्थान की कहानी। rajasthan ki kahani.

राणा अमरसिंह ने मुगल सेनाओं के साथ वीरतापूर्वक युद्ध करने के पुरस्कार में सकतावत सरदारों को सेनाकी ‘ हरावल ‘ ( आगे चलने- ) का अधिकार दिया । लेकिन सेनाकी हरावल का अधिकार पुराने समय से चन्दावत सरदारों का था । जब चन्दावत सरदार को इस बातका पता लगा तो वे तुरन्त घोड़ेपर सवार होकर राणा के पास आये और बोले – ‘ मेरे कुल में पुराने समय से हरावल का अधिकार आ रहा है । मैं इसे छोड़ नहीं सकता । ‘

सकतावत सरदार भी वहाँ थे । उन्होंने क्रोध में भरकर कहा – ‘ हरावल का अधिकार राणा ने हमें दिया है । हम इसे दूसरे किसी को लेने नहीं देंगे । ‘ राणा ने देखा कि दोनों सरदार परस्पर युद्ध करने को तलवारें खींच रहे हैं । इसलिये उन्होंने कहा – ‘ हरावलका अधिकार तो वीर का अधिकार है । जो अधिक वीर होगा , उसी को यह अधिकार मिलेगा । ‘

चन्दावत सरदार तलवार खींचकर गरज उठा – ‘ चन्दावत वीर नहीं हैं – यह जिसे भ्रम हो वह युद्ध करने आ जाय । सकतावत सरदारों ने भी तलवारें निकाल लीं । लेकिन राणा ने उन्हें रोककर कहा – ‘ मुगलसेना हमारे चारों ओर पड़ी है । हमें मुगलों से अपने देशका उद्धार करना है । ऐसी दशामें हमारा एक भी वीर सरदार व्यर्थ प्राण दे , यह मैं नहीं चाहता । मैंने निर्णय किया है कि उटालाके किले में जो पहले घुस सकेगा , उसीको सेनाके आगे चलने का पद ( हरावल ) दिया जायगा । ‘

सब ने राणा के निर्णयकी प्रशंसा की । उदयपुर से अठारह मीलपर चित्तौड़ के रास्तेपर उटालाका किला था । उस पर मुगलसेना का अधिकार था । किले के नीचे एक तेज धारवाली नदी बहती थी । किला दुर्गम पहाडी पर था और अजेय समझा जाता था । सकतावत और चन्दाबत सरदान अपनी – अपनी सेना सजायी और अलग – अलग रास्तेसे उटाला किलेपर चढ़ाई करने चल पड़े ।

सकतावत सरदार अपनी सेनाके साथ पहले पहुंचे । लेकिन शीघ्रता में वे लोग सीढ़ियाँ और रस्सियाँ लाना भूल गये थे । अब लौटने पर डर था कि चन्दावत आ जायंगे और किले पर पहले अधिकार कर लेंगे । इसलिये उन लोगों ने फाटक तोड़ने का निश्चय किया । किले के मुगलसैनिक सकतावत वीरोंके हाथों गाजर – मूलीकी भाँति कटने लगे । इतने में चन्दावत सरदार भी सेना के साथ आ पहुँचे । उन लोगों ने सीढ़ियाँ लगायीं और किलेपर चढ़ने लगे ।

अब सकतावत सरदारों से रहा नहीं गया । किले का फाटक तोड़ने के लिये हाथी बढ़ाया गया , परन्तु फाटक में कीलें लगी थीं । हाथी उनपर टक्कर नहीं मार सकता था । सकतावत सरदार अचल सिंह ने देखा – चन्दावत अब दीवार पर चढ़ना ही चाहते हैं । वह घोड़े से कूदा और किले के फाटक से पीठ सटाकर खड़ा हो गया । बड़े दृढ़ स्वरमें उसने आज्ञा दी – ‘ हाथी हूलो । ‘ महावत काँप गया । हाथी टक्कर मारे तो सरदार की मृत्यु निश्चित है ।

लेकिन अचल सिंह ने महावतको हिचकते देख कहा – ‘ देखता नहीं , चन्दावत दुर्गपर चढ़े जा रहे हैं । तुझे सकतावतों की आन ! हाथी हूल । ‘ दाँतपर दाँत दबाकर महावत ने हाथी को अंकुश मारा । हाथीने पूरे जोरसे चिग्घाड़ मारकर अचलसिंहकी छातीपर अपने सिरसे टक्कर मार दी । अचल सिंह का देह फाटक के कीलों से छिदकर उसमें चिपक गया ; किन्तु किले का फाटक चरमराकर टूटा और गिर पड़ा ।

उधर चन्दावत सरदारने किलेपर चढ़ते – चढ़ते देख लिया था कि किले का द्वार टूट गया है और सकतावत अब विजयी होने वाले हैं । चन्दावत सरदारने अपने साथी से कहा – ‘ मेरा सिर काट लो और झटपट किले के भीतर फेंक दो । ‘ चन्दावत सरदारका कटा सिर किले के भीतर सकतावतों से पहले पहुँच गया । राणा की सेनामें हरावलका अधिकार चन्दावतों के पास वंशपरम्परा से था और सुरक्षित रह गया ;

किन्तु यह निर्णय करना किसी के लिये सरल कहाँ है कि सकतावत और चन्दावत सरदारों में से अधिक वीर कौन था ! देश , जाति एवं कुलकी मर्यादा की रक्षाके लिये हँसते हँसते प्राण देनेवाले वे वीर धन्य हैं और धन्य है ऐसे वीरोंको उत्पन्न करनेवाली भारत – भूमि ।

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पन्नाधाय की कहानी। rajasthani kahani.

चित्तौड़ के महाराणा संग्रामसिंह की वीरता प्रसिद्ध है । उनके स्वर्गवासी होने पर चित्तौड़ की गद्दीपर राणा विक्रमादित्य बैठे ; किन्तु वे शासन करने की योग्यता नहीं रखते थे । उनमें न बुद्धि थी और न वीरता । इसलिये चित्तौड़ के सामन्तों और मन्त्रियों ने सलाह करके उनको गद्दी से उतार दिया तथा महाराणा संग्रामसिंह के छोटे कुमार उदयसिंह को गद्दी पर बैठाया ।

उदयसिंह की अवस्था उस समय केवल छ : वर्ष की थी । उनकी माता रानी करुणावती का स्वर्गवास हो चुका था । पन्ना नामकी एक धाय उनका पालन – पोषण करती थी । राज्य का संचालन दासी – पुत्र बनवीर करता था । वह उदयसिंह का संरक्षक बनाया गया था । बनवीर के मन में राज्य का लोभ आया । उसने सोचा कि यदि विक्रमादित्य और उदयसिंहको मार दिया जाय तो सदाके लिये वह राजा बन सकेगा ।

सेना और राज्य का संचालन उसके हाथ में था ही । एक दिन रातमें बनवीर नंगी तलवार लेकर राजभवनमें गया और उसने सोते हुए राजकुमार विक्रमादित्यका सिर काट लिया । जूठी पत्तल उठानेवाले एक बारीने बनवीरको विक्रमादित्यकी हत्या करते देख लिया । वह ईमानदार और स्वामिभक्त बारी बड़ी शीघ्रताके साथ पास आया और उसने कहा – ‘ बनवीर राणा उदयसिंहकी हत्या करने शीघ्र ही यहाँ आयेगा । कोई उपाय करके बालक राणा के प्राण बचाओ । ‘

पन्ना धाय अकेली बनवीर को कैसे रोक सकती थी । उसके पास कोई उपाय सोचने का समय भी नहीं था । लेकिन उसने एक उपाय सोच लिया । उदयसिंह उस समय सो रहे थे । उनको उठाकर पन्नाने एक टोकरीमें रख दिया और टोकरी पत्तलसे ढककर उस बारीको देकर कहा – ‘ इसे लेकर तुम यहाँसे चले जाओ । वीरा नदीके किनारे मेरा रास्ता देखना । ‘ उदयसिंहको छिपाकर हटा देनेसे भी काम चलता नहीं था । बनवीरको पता लग जाय कि उदयसिंहको छिपाकर भेजा गया है तो वह घुड़सवार भेजकर उन्हें अवश्य पकड लेगा।

पन्ना ने एक दूसरा ही उपाय सोचा उसके भी एक पुत्र था उसके पुत्र चंदन की अवस्था भी छह वर्ष की थी। उसने अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुलाकर रेशमी चद्दर उढ़ा दी और स्वयं एक ओर बैठ गयी । जब बनवीर रक्त में सनी तलवार लिये वहाँ आया और पूछने लगा – ‘ उदयसिंह कहाँ है ? ‘ तब पन्नाने बिना एक शब्द बोले अंगुली से अपने सोते लड़के की ओर संकेत कर दिया । हत्यारे बनवीर ने उसके निरपराध बालक के तलवार द्वारा दो टुकड़े कर दिये और वहाँ से चला गया । अपने स्वामी की रक्षा के लिये अपने पुत्र का बलिदान करके बेचारी पन्ना रो भी नहीं सकती थी । उसे झटपट वहाँ से नदी किनारे जाना था , जहाँ बारी उदयसिंह को लिये उसका रास्ता देखता था ।

राजस्थान की कहानी।
राजस्थान की कहानी।

पन्ना ने अपने पुत्र की लाश ले जाकर नदी में डाल दी और उदयसिंह को लेकर मेवाड़ से चली गयी । उसे अनेक स्थानों पर भटकना पड़ा । अन्त में देवरा के सामन्त आकाशाह ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया । बनवीर को अपने पापका दण्ड मिला । बड़े होने पर राणा उदयसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे । पन्ना धाय उस समय जीवित थी । राणा उदयसिंह माता के समान उसका सम्मान करते थे। पन्ना माई धन्य है । स्वामी के लिये अपने पुत्र तक का बलिदान करने वाली पन्ना माई धन्य है।

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देशभक्त : राजस्थान की कहानी। rajasthan ki kahani.

राजपूतानेमें बूंदी – राज्य पहले चित्तौड़के अधीन था ; किन्तु पीछे वह स्वाधीन हो गया । जब चित्तौड़के राणा दिल्लीके बादशाहके आक्रमणोंसे कुछ निश्चिन्त हुए , तब उन्होंने बूंदीपर आक्रमण करके उसे फिरसे चित्तौड़के अधीन बनानेका निश्चय किया । एक सेना सजाकर वे चल पड़े और बूंदीके पास निमोरियामें पड़ाव डालकर रुके । दीके राजा हाड़ाको इसका समाचार मिला ।

उन्होंने अपने चुने हुए पाँच सौ योधाओंको साथ लिया और रातके समय राणाकी सेनापर छापा मारा । चित्तौड़के सैनिक बेखबर थे । अचानक आक्रमण होनेसे उनके सहस्रों वीर मारे गये । राणाको पराजित होकर चित्तौड़ लौटना पड़ा । इस पराजयसे राणा क्रोधमें भर गये । उन्होंने प्रतिज्ञा की – ‘ जबतक दीके किलेको गिरा नहीं दूंगा , अन्न – जल नहीं लूंगा । ‘ चित्तौड़से बूंदी बत्तीस कोस है । सेना एकत्र करने , बूंदीतक जानेमें समय तो लगना ही था । यह भी पता नहीं था कि युद्ध कितने दिन चलेगा ।

राणाकी प्रतिज्ञा सुनकर चित्तौड़के सामन्त और मन्त्री बहुत दुःखी हुए । उन्होंने राणाको समझाया ‘ आपकी प्रतिज्ञा बहुत कड़ी है । बूंदी जीतना तो है ही ; किन्तु आप तबतक अन्न – जल न लेनेकी प्रतिज्ञा छोड़ दें । ‘ राणाने कहा – ‘ प्रतिज्ञा तो प्रतिज्ञा है । मैं अपनी प्रतिज्ञा झूठी नहीं करूंगा । ‘ अन्तमें मन्त्रियोंने एक उपाय निकाला । उन्होंने चित्तौड़में बूंदीका एक नकली किला बनानेका विचार किया और राजवेद्यान राणासे कहा – ‘ आप बूंदीके नकली किलेको गिराकर प्रतिज्ञा पूरी कर लीजिये और अन्न – जल ग्रहण कीजिये ।

दो – चार दिनोंमें सेना एकत्र करके बूंदीपर सुविधानुसार आक्रमण किया जायगा । ‘ राणाने मन्त्रियोंकी बात मान ली । बूंदीका नकली किला बनाया जाने लगा । बूंदीमें हाड़ा जातिके राजपूतोंका राज्य था । बूंदीके हाड़ा जातिके कुछ राजपूत चित्तौड़की सेनामें भी थे । उनकी सैनिक टुकड़ीके नायकका नाम कुम्भा वैरसी था । कुम्भा उस दिन वनसे आखेट करके लौट रहे थे तो उन्होंने बूंदीका नकली किला बनते देखा । पूछनेपर उन्हें राणाकी प्रतिज्ञा और मन्त्रियोंके सलाहकी सब बातोंका पता लग गया ।

कुम्भा बड़ी शीघ्रतासे अपने डेरेपर आये । उन्होंने अपनी टुकड़ीके सब हाड़ा राजपूत सैनिकोंको इकट्ठा किया । सब बातें बताकर वे बोले – ‘ जहाँ एक भी सच्चा देश – भक्त होता है , वहाँ वह अपने जीते – जी अपने देशके झंडे या अपने देशके किसी आदर्श चिह्नका अपमान नहीं होने देता । देश – भक्त । उनी राणायां गया यह दीका नकली किला झंडेके समान बूँदीका चिह्न बनाया जा रहा है और इसी भावसे उसे तोड़नेकी बात सोची गयी है । यह हमारी जन्मभूमिका अपमान है । अपने जीते जी हम यह अपमान नहीं होने देंगे ।

ठीक समयपर राणाजी थोड़ी सेना लेकर नकली किला तोड़ने गये तो उन्होंने देखा कि कुम्भा वैरसी अपने सैनिकोंके साथ उस किलेकी रक्षाके लिये हथियारोंसे सजा खड़ा है । कुम्भाने राणासे कहलाया – हमलोग आपके सेवक हैं । हमने आपका नमक खाया है । आप बूंदीपर आक्रमण करें तो हम आपका विरोध नहीं करेंगे । दूसरे किसी आक्रमणमें हम आपकी रक्षाके लिये , आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये बड़ी प्रसन्नतासे प्राण दे सकते हैं , किन्तु अपनी जन्मभूमिका हम इस प्रकार अपमान नहीं देख सकते ।

हमारे जीते – जी आप इस नकली किलेको तोड़ नहीं सकते । राणाको क्रोध आया । बड़ा भारी युद्ध छिड़ गया । जिस नकली किलेको तोड़ना राणा और उनके मन्त्रियोंने बहुत सरल समझा था , उसके लिये उन्हें बड़ा भयानक युद्ध करना पड़ा । कुम्भा और उनके साथियोंकी जब लोथें गिर गयीं , तभी राणा उस नकली किलेको तोड़ सके । किलेको तोड़कर राणाने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली ,

किन्तु कुम्भा – जैसे वीरके मरनेका उन्हें बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने कुम्भाकी वीरताका सम्मान करनेके लिये बूंदीपर आक्रमण करनेका विचार छोड़ दिया और वहाँके राजाको बुलाकर उनसे मित्रता कर ली । कुम्भा – जैसे देशभक्त एवं वीर ही देशको स्वाधीन एवं मित्र गौरवशाली बनाते हैं ।

राजा हमीर देव की कहानी। rajasthan ki kahani(katha).

हमीर देव चौहान  : राजस्थान की कहानी। Rajasthan ki kahani.
हमीर देव – राजस्थान की कहानी।

उस समय अलाउद्दीन बादशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा था। बादशाह का एक प्रिय सरदार मुहम्मद शाह था। बादशाह की मुहम्मद शाह पर बड़ी कृपा थी और इस वजह से वह बादशाह का चेहरा बन गया था। एक दिन मुहम्मद शाह ने हँसी में बात करते हुए ऐसी बात कह दी कि बादशाह गुस्से से लाल हो गया। उसने मुहम्मद शाह को फाँसी देने का आदेश दिया। बादशाह का आदेश सुनकर मुहम्मद शाह का जीवन सूख गया।

वह किसी तरह दिल्ली से भाग निकला। उसने अपनी जान बचाने के लिए कई राजाओं से प्रार्थना की, लेकिन किसी ने उसे आश्रय देना स्वीकार नहीं किया। सम्राट को नाराज करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। आपदा के कारण मुहम्मद शाह इधर-उधर भटक रहे थे। अंत में वह रणथंभौर के चौहान राजा हमीर के दरबार में गया। उसने राजा से उसकी जान बचाने की प्रार्थना की। राजा ने कहा – ‘राजपूत का पहला धर्म शरणार्थी की रक्षा करना है। तुम यहीं मेरे साथ रहो। जब तक मेरे जिस्म में जान है, कोइ तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता।

मुहम्मद शाह रणथंभौर में रहने लगे। जब बादशाह अलाउद्दीन को इस बात का पता चला तो उसने राजा हमीर को सन्देश भेजा- ‘मुहम्मद शाह मेरा भगोड़ा है। उसे मौत की सजा सुनाई गई है। आप इसे तुरंत मेरे पास भेजें। ‘

राजा हमीर ने उत्तर भेजा – मोहम्मद शाह मेरी शरण में आया है और मैंने उसकी रक्षा करने का वचन दिया है, भले ही मुझे सारी दुनिया से लड़ना पड़े, मैं भय और लालच में शरण नहीं छोड़ूंगा। राजा का पत्र पाकर अलाउद्दीन बहुत क्रोधित हुआ। उन्होंने इसे अपमान माना और साथ ही सेना को रणथंभौर पर छापा मारने के लिए कहा। टिड्डियों की तरह, पठानों की एक विशाल सेना ने मार्च किया, रणथंभौर के किले को 10 मील तक घेर लिया, अलाउद्दीन ने फिर से राजा को संदेश भेजा कि वह मोहम्मद शाह को भेज दे।

बादशाह समझ गया कि राजा हमीर बादशाह की विशाल सेना को देखकर डर जाएगा, लेकिन राजा हमीर ने स्पष्ट कर दिया कि वह किसी भी तरह से शरण नहीं छोडेगा। युद्ध शुरू हो गया। सम्राट की सेना बहुत बड़ी थी; लेकिन राजपूत योद्धा मौत के दो हाथ भी करने को तैयार थे। महीनों तक भयंकर युद्ध चलता रहा। दोनों पक्षों के हजारों वीर मारे गए। अंत में एक दिन मुहम्मद शाह ने स्वयं राजा हमीर से कहा – ‘महाराज! तुमने मेरी वजह से बहुत कुछ सहा है। मैं अब आपके नायकों का विनाश नहीं देखता। मुझे राजा के पास जाना है। ‘

राजा हमीर ने कहा – ‘मोहम्मद शाह! ऐसी बात दोबारा मत कहना। जब तक मेरे शरीर में जान है, तुम यहां से बादशाह के पास नहीं जा सकते। राजपूत का कर्तव्य है शरण-रक्षा। मैं प्राण देकर भी अपना कर्तव्य निभाऊंगा। जैसे-जैसे समय बीतता गया राजपूत सेना के सैनिक कम होते गए। रणथंभौर किले में खाने-पीने का सामान कम होने लगा। दूसरी ओर, दिल्ली से आने के बाद अलाउद्दीन की सेना में नई टूकडिया बढ़ती रहीं। अंत में रणथंभौर किले के सभी खाद्य पदार्थ समाप्त हो गए। राजा हमीर ने जौहर व्रत का पालन करने का फैसला किया। राजपूत महिलाएं जलती हुई चिता में कूद गईं और भगवा वस्त्र पहनकर सभी राजपूत किले के द्वार खोलकर चले गए।

वे अपने शत्रुओं से लड़ते हुए मारे गए। मुहम्मद शाह भी राजा हमीर के साथ युद्ध के मैदान में गए और युद्ध में मारे गए। जब विजयी सम्राट अलाउद्दीन रणथंभौर के किले में पहुंचा तो उसे जलती हुई चिता की राख और अंगारे ही मिले। शरणार्थी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर महापुरुष विश्व में भारत की इस पावन भूमि पर ही जन्में है।

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राजकुमार की दयालुता : राजस्थान की कहानी। Rajasthan ki kahani .

चित्तौड़ का बड़ा राजकुमार चंदा शिकार के लिए निकला था। वह अपने साथियों के साथ चला गया। उन्होंने उस दिन श्रीनाथद्वारा में रात बिताने का निश्चय किया था। शाम को जब वे श्रीनाथद्वारा की ओर लौटने लगे तो पहाड़ की सड़क पर एक घोड़ा मृत पड़ा मिला। राजकुमार ने कहा – ‘यहाँ एक यात्री का घोड़ा मर गया है। घोड़ा आज मर गया। यहां से आगे रहने की जगह सिर्फ श्रीनाथद्वारा है। वह मुसाफिर वहीं गया होगा। श्रीनाथद्वारा पहुँचने पर राजकुमार ने सबसे पहले यात्री की खोज की। उनके मन में एक ही चिंता थी कि अगर यात्रा में घोड़ा मर गया तो यात्री को कष्ट होगा।

राजकुमार उसे एक और घोड़ा देना चाहता था। लेकिन जब नौकरों ने बताया कि यात्री यहाँ नहीं आया है, तो राजकुमार और अधिक चिंतित हो गया। वे कहने लगे- ‘जरूर वह राहगीर रास्ता भूलकर भटक गया है। वह इस देश से अपरिचित होना चाहिए। पता नहीं वह रात को जंगल में कहाँ जाएगा। तुम लोग दल बनाकर जाओ और उसे ढूंढ कर लाओ। राजकुमार की आज्ञा पाकर उसके सेवकों ने मशालें जलाईं और तीन-तीन, चार-चार का दल बनाया और यात्री को खोजने निकल पड़े।

काफी भटकने के बाद किसी ने उनमें से एक दल के लोगों को बुलाया। जब उस समूह के लोग पास पहुंचे तो देखा कि एक बूढ़ा और एक युवक बहुत सारा सामान लेकर घोड़े पर चल रहे थे। वे बहुत नर्वस और थके हुए हैं। राजकुमार के सेवकों ने कहा, ‘डरो मत। हम आपको खोजने निकले हैं। ‘ बूढ़े ने बड़े आश्चर्य से कहा – ‘हम अनजान लोग हैं। विपत्ति के कारण वे घर का द्वार छोड़कर श्रीनाथ जी की शरण में जाने के लिए निकल पड़े हैं। आज रास्ते में हमारा घोड़ा गिर कर मर गया। यहां हम रास्ता भूल गए हैं, रास्ता भूल गए हैं, आप हमें खोजने के लिए कैसे निकले हैं।

नौकरों ने कहा – ‘हमारे राजकुमार ने तुम्हारा मरा हुआ घोड़ा देखा था। वे हर चीज को लेकर बहुत सावधान रहते हैं। वे जानते थे कि आप रास्ता भूल गए होंगे। ‘ एक राजकुमार इतना सावधान और दयालु, यह दोनों यात्रियों के लिए अद्भुत था। श्रीनाथद्वारा आकर उन्होंने राजकुमार का आभार व्यक्त किया। राजकुमार चंदा ने कहा- ‘सावधान रहना और मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करना हर इंसान का फर्ज है। मैंने केवल अपना कर्तव्य किया है।

यह थी कुछ राजस्थान की कहानियां हम आशा करते हैं कि आपको राजस्थान की कहानियां(Rajasthan ki kahaniyan)पसंद आई होगी धन्यवाद।

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