महाराज रघु का दान। राजा रघु की कथा।

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राजा रघु की कथा: महाराज रघु अयोध्याके सम्राट् थे । वे भगवान श्रीरामके प्रपितामह थे । उनके नामसे ही उनके वंशके क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते हैं । एक बार महाराज रघुने एक बड़ा भारी यज्ञ किया । जब यज्ञ पूरा हो गया तब महाराजने ब्राहाणों तथा दीन – दुःखियोंको अपना सब धन दान कर दिया । महाराज इतने बड़े दानी थे कि उन्होंने अपने आभूषण , सुन्दर वस्त्र और सब बर्तनतक दान कर दिये । महाराजके पास साधारण वस्त्र रह गया । वे मिट्टीके बर्तनोंसे काम चलाने लगे । यज्ञमें जब महाराज रघु सर्वस्व दान कर चुके , तब उनके पास वरतन्तु ऋषिके शिष्य कौत्स नामके एक ब्राह्मणकुमार आये । महाराजने उनको प्रणाम किया , आसनपर बैठाया और मिट्टीके गडुवेसे उनके पैर धोये । स्वागत सत्कार हो जानेपर महाराजने पूछा – ‘ आप मेरे पास कैसे पधारे हैं ? मैं क्या सेवा करूँ ? ‘ कौत्सने कहा – ‘ महाराज ! मैं आया तो किसी कामसे ही था ; किंतु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है । मैं आप जैसे महादानी उदार पुरुषको सङ्कोचमें नहीं डालूंगा । ‘ महाराज रघुने नम्रतासे प्रार्थना की – ‘ आप अपने आनेका उद्देश्य तो बता दें । ‘ कौत्सने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है । अपने गुरुदेवके आश्रमसे घर जानेसे पहले गुरुदेवसे उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगनेकी प्रार्थना की । गुरुदेवने बड़े स्नेहसे कहा – ‘ बेटा ! तूने यहाँ रहकर जो मेरी सेवा की है , उससे समझ मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी । तू सङ्कोच मत कर । प्रसन्नतासे घर जा । ‘ लेकिन कौत्सने जब गुरुदक्षिणा देनेका हठ कर लिया तब गुरुदेवको कुछ क्रोध आ गया । वे बोले – ‘ तूने मुझसे चौदह विद्याएँ पढ़ी हैं , अत : प्रत्येक विद्याके लिये एक करोड़ सोनेकी मोहरें लाकर दे । ‘ गुरुदक्षिणाके लिये चौदह करोड़ सोनेकी मोहरें लेने कौत्स अयोध्या आये थे । महाराजने कौत्सकी बात सुनकर कहा – ‘ जैसे आपने यहाँतक आनेकी कृपा की है , वैसे ही मुझपर थोड़ी – सी कृपा और करें । तीन दिनतक आप मेरी अग्निशालामें ठहरें । रघुके यहाँसे एक ब्राह्मणकुमार निराश लौट जाय , यह तो बड़े दुःख एवं कलङ्ककी बात होगी । मैं तीन दिनमें आपकी गुरुदक्षिणाका कोई – न – कोई प्रबन्ध अवश्य कर दूंगा । ‘ कौत्सने अयोध्यामें रुकना स्वीकार कर लिया । महाराजने अपने मन्त्रीको बुलाकर कहा – ‘ यज्ञमें सभी सामन्त नरेश कर दे चुके हैं । उनसे दुबारा कर लेना न्याय नहीं है । लेकिन कुबेरजीने मुझे कभी कर नहीं दिया । वे देवता हैं तो क्या हुआ , कैलासपर रहते हैं । इसलिये पृथ्वीके चक्रवर्ती सम्राट्को उन्हें कर देना चाहिये । मेरे सब अस्त्र – शस्त्र मेरे रथमें रखवा दो । मैं कल सबेरे कुबेरपर चढ़ाई करूँगा । आज रातको मैं उसी रथमें सोऊँगा । जबतक ब्राह्मणकुमारको गुरुदक्षिणा न मिले , मैं राजमहलमें पैर नहीं रख सकता । ‘ उस रात महाराज रघु रथमें ही सोये । लेकिन बड़े सबेरे उनका कोषाध्यक्ष उनके पास दौड़ा आया और कहने लगा – ‘ महाराज ! खजानेका घर सोनेकी मोहरोंसे ऊपरतक भरा पड़ा है । रातमें उसमें मोहरोंकी वर्षा हुई है । ‘ महाराज समझ गये कि कुबेरजीने ही यह मोहरोंकी वर्षा की है । महाराजने सब मोहरोंका ढेर लगवा दिया और कौत्ससे बोले – ‘ आप इस धनको ले जाय ! ‘कौत्सने कहा – ‘ मुझे तो गुरुदक्षिणाके लिये चौदह करोड़ मोहरें चाहिये । उससे अधिक एक मोहर भी मैं नहीं लूंगा । ‘ महाराजने कहा – ‘ लेकिन यह धन आपके लिये आया है । ब्राह्मणका धन हम अपने यहाँ नहीं रख सकते । आपको ही यह सब लेना पड़ेगा । ‘ कौत्सने बड़ी दृढ़तासे कहा – ‘ महाराज ! मैं ब्राह्मण हूँ । धनका मुझे करना क्या है । आप इसका चाहे जो करें , मैं तो एक मोहर अधिक नहीं लूँगा । ‘ कौत्स चौदह करोड़ मोहरें लेकर चले गये । शेष मोहरें महाराज रघुने दूसरे ब्राह्मणोंको दान कर दी ।


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