राजा शिबि की कहानी। शरणागत रक्षक महाराज शिबि।

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उशीनर देशके राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभामें बैठे थे । उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजाकी गोदमें गिरकर उनके कपड़ोंमें छिपने लगा । कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था । राजाने उसके ऊपर प्रेमसे हाथ फेरा और उसे पुचकारा । कबूतरसे थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजाके सामने बैठ गया । बाजने मनुष्यकी बोलीमें कहा – ‘ आप न्यायको जाननेवाले राजा हैं । आपको किसीका भोजन नहीं छीनना चाहिये । यह कबूतर मेरा भोजन है । आप इसे दे दीजिये । ‘ महाराज शिबिने कहा – ‘ तुम मनुष्यकी भाषा बोलते हो । साधारण पक्षी तुम नहीं हो सकते । लेकिन तुम चाहे जो कोई हो , यह कबूतर मेरी शरणमें आया है । मैं शरणागतका त्याग नहीं करूंगा । ‘ बाज बोला – ‘ मैं बहुत भूखा हूँ । आप मेरा भोजन छीनकर मेरे प्राण क्यों लेते हैं ? ‘ राजा शिबि बोले – ‘ तुम्हारा काम तो किसी भी मांससे चल सकता है । तुम्हारे लिये यह कबूतर ही मारा जाय , इसकी क्या आवश्यकता है । तुम्हें कितना मांस चाहिये ? ‘ बाज कहने लगा – ‘ महाराज ! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे , मांस तो किसीको मारनेसे ही मिलेगा । सब प्राणी आपकी प्रजा हैं , सब आपकी शरणमें हैं । उनमेंसे जब किसीको मारना ही है तो इस कबूतरको ही मारनेमें क्या दोष है ? मैं तो ताजा मांस खानेवाला प्राणी हूँ और अपवित्र मांस मैं खाता नहीं । मुझे कोई लोभ भी नहीं है । इस कबूतरके बराबर तौलकर किसी पवित्र प्राणीका ताजा मांस मुझे दे दीजिये । मेरी भूख उतनेसे बुझ जायगी । ‘ राजाने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणीको नहीं मारूँगा । अपना मांस ही मैं तुमको दूंगा । ‘ बाज बोला – ‘ एक कबूतरके लिये आप चक्रवर्ती सम्राट् होकर अपना शरीर क्यों काटते हैं ? आप फिरसे सोच लीजिये । राजाने कहा – ‘ बाज ! तुम्हें तो अपना पेट भरनेसे काम है । तुम मांस लो और अपनी भूख मिटाओ । मैंने सोच समझ लिया है । मेरा शरीर अजर – अमर नहीं है । शरणमें आये एक प्राणीकी रक्षामें शरीर लग जाय , इससे अच्छा इसका दूसरा कोई उपयोग नहीं हो सकता । ‘ महाराजकी आज्ञासे वहाँ काँटा मँगवाया गया । एक पलड़ेमें कबूतर बैठाया गया और दूसरे पलड़ेमें महाराज ने अपने हाथसे काटकर अपनी बायीं भुजा रख दी । लेकिन कबूतरका पलड़ा भूमिसे उठा नहीं । महाराज शिबिने अपना एक पैर काटकर रखा और जब फिर भी कबूतर भारी रहा तो दूसरा पैर भी काटकर चढ़ा दिया । इतनेपर भी कबूतरका पलड़ा भूमिपर ही टिका रहा । महाराज शिबिका शरीर रक्तसे लथपथ हो गया था , लेकिन उन्हें इसका कोई दुःख नहीं । अबकी बार वे स्वयं पलड़ेपर बैठ गये और बाजसे बोले – ‘ तुम मेरे इस देहको खाकर अपनी भूख मिटा लो । महाराज जिस पलड़ेपर थे , वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमिपर टिक गया था और कबूतरका पलड़ा ऊपर उठ गया था । लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात् देवराज इन्द्रके रूपमें प्रकट हो गया है और कबूतर बने अग्नि – देवता भी अपने रूपमें खड़े हैं । अग्नि – देवताने कहा – ‘ महाराज ! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या , विश्वमें कोई भी नहीं कर सकता । ‘ इन्द्रने महाराजका शरीर पहलेके समान ठीक कर दिया और बोले – ‘ आपके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये हमलोगोंने यह बाज और कबूतरका रूप बनाया था । आपका यश अमर रहेगा । ‘ दोनों देवता महाराजकी प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये ।


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