शंख व लिखित मुनि की कहानी।

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शंख और लिखित नामके दो मुनि थे । दोनों सगे भाई थे । दोनों अलग – अलग आश्रम बनाकर रहते थे और भगवान्का भजन करते थे । ये दोनों मुनि धर्मशास्त्रके बड़े भारी विद्वान् थे । इन्होंने स्मृतियाँ बनायी हैं । शंख मुनि बड़े भाई थे और लिखित मुनि छोटे । एक बार लिखित मुनि अपने बड़े भाई शंख मुनिसे मिलने उनके आश्रममें गये । शंख मुनि उस समय वनमें गये थे । लिखित मुनि भूखे थे , उन्होंने अपने बड़े भाईके आश्रमके वृक्षोंमेंसे एक वृक्षका एक पका हुआ फल तोड़ा और उसे खाने लगे । इतनेमें शंख मुनि वहाँ आये । अपने छोटे भाई को आया देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई , किन्तु लिखित मुनिके हाथमें फल देखकर उन्हें कुछ खेद भी हुआ । उन्होंने पूछा – ‘ लिखित यह फल तुम्हें कहाँ मिला ? ‘ लिखित मुनिने कहा – ‘ भैया ! यह तो आपके आश्रमके वृक्षसे मैंने तोड़ा है । ‘ शंख मुनि बोले – ‘ यदि कोई किसी दूसरेकी वस्तु उससे बिना पूछे ले ले तो उसका यह काम क्या कहा जायगा ? ‘ लिखितने कहा – ‘ उसका यह काम चोरी कहलायेगा । शंखने फिर पूछा – ‘ कोई चोरी कर ले तो उसे क्या करना चाहिये ? ‘ लिखित बोले – ‘ उसे राजाके पास जाकर अपना पाप बता देना चाहिये और पापका जो दण्ड मिले , उसे भोग लेना चाहिये । दण्ड भोगनेसे पापके दोषसे वह शुद्ध हो जाता है यदि वह इस लोक में पाप का दंड न भोगे तो मरने पर यमराज के दूत उसे पकड़कर नरक में ले जाते हैं और बहुत दुख देते हैं। शंख मुनि ने कहा तुमने मुझसे बिना पूछे मेरे आश्रम के वृक्ष से फल लेकर चोरी का पाप किया है अब तुम राजा के पास जाकर इस पाप का दंड ले लो और यहां आओ।लिखित मुनि वहाँसे चलकर राजाके पास पहुँचे । राजाने उन्हें प्रणाम किया और वह स्वागत – सत्कार करने लगा ; किन्तु लिखित मुनिने राजाको अपना सत्कार नहीं करने दिया । ‘ उन्होंने अपना अपराध बताकर कहा – ‘ आप मुझे दण्ड दीजिये । ‘ राजाने कहा – ‘ राजा जैसे दण्ड देता है , वैसे ही क्षमा भी कर सकता है , मैं आपका अपराध क्षमा करता हूँ । ‘ लिखित मुनि बोले – ‘ धर्मशास्त्रके नियम मुनिलोग बनाते हैं । राजाको तो प्रजासे उन नियमों का पालन कराना चाहिये । मैं तुमसे क्षमा लेने नहीं आया , दण्ड लेने आया हूँ । मेरे बड़े भाई ने स्नेहवश , मेरा कर्तव्य सुझाकर मुझे यहाँ भेजा है । मुझे अपराधका दण्ड दो । ‘ राजाको मुनिका हठ मानना पड़ा । उन दिनों चोरी के अपराध का दण्ड था चोर के दोनों हाथ काट लेना । राजा की आज्ञासे जल्लाद ने मुनिके दोनों हाथ काट लिये । हाथ कट जानेसे लिखित मुनिको कोई दुःख नहीं हुआ । वे बड़ी प्रसन्नता से शंख मुनिके आश्रमपर लौट आये और बोले – ‘ भैया ! मैं अपराध का दण्ड ले आया । ‘ शंख मुनि ने छोटे भाईको हृदयसे लगाया और बोले – ‘ तुमने बड़ा अच्छा किया । आओ , अब स्नान करके दोपहरकी संध्या करें । ‘ नदी के जल में स्नान करके जब तर्पण करने के लिये लिखित मुनिने कटे हाथ आगे किये तो झट उनके हाथ पूरे निकल आये । वे समझ गये कि यह उनके बड़े भाई की कृपा का फल है । उन्होंने बड़ी नम्रतासे पूछा – ‘ भैया ! जब मेरे हाथ उगा ही देने थे तो आपने ही उन्हें यहाँ क्यों नहीं काट लिया ? ‘ शंख मुनि बोले – ‘ दण्ड देना राजाका काम है । दूसरा कोई दण्ड दे तो उसे पाप होगा । लेकिन कृपा करना तो सदा ही श्रेष्ठ है । इसलिये तुम्हारे ऊपर कृपा करके मैंने तुम्हारे हाथ ठीक कर दिये । ‘ बिना पूछे किसी की कोई भी वस्तु लेना चोरी है , बात इस कथासे भली प्रकार समझमें आ जाती है ।

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