Meera bai, जानिए मीरा बाई के बारे में संपूर्ण जानकारी

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भक्तिकालीन कवियों में मीरा का विशिष्ट स्थान है । जिस समय राजस्थान में जाम्भौजी , दादू आदि सन्त धार्मिक समन्वय और समाज सुधार के लिए प्रयास कर रहे थे उसी समय राजस्थान में सगुण भक्ति रस की धारा बहाने वालों में मीरा का नाम सर्वोपरि है । दुर्भाग्यवश मीरा का प्रामाणिक तथा क्रमबद्ध जीवन उपलब्ध नहीं है । डॉ.नरोत्तम स्वामी के अनुसार मीरा का जन्म 1498 तथा 1504 ई.के बीच माना जा सकता है । डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने मीरा का जन्म 1498-99 ई . माना है । डॉ . पैमाराम के अनुसार मीरा का जन्म 1498 ई . हुआ था । मीरा अपने पिता रत्नसिंह की इकलौती पुत्री थी । मीरा का जन्म मेड़ता से लगभग 21 मील दूर कुड़की नामक गाँव में हुआ था । जब मीरा केवल दो वर्ष की थी तो उसकी माता का देहान्त हो गया । अतः मीरा मेड़ता में अपने दादा राव दूदा के पास रहने लगी । राव टूटा थे । मीरा के पिता रत्नसिंह , चाचा वीरमदेव और उसकी दादी सभी वैष्णव धर्म के उपासक थे । अत : बचपन से ही मीरा वैष्णव धर्म के वातावरण में बड़ी हुई । मीरा में कृष्ण – भक्ति की भावना उनकी दादी द्वारा उत्पन्न हुई थी । जब एक बारात को देखकर मीरा ने अपनी दादी से पूछा था कि यह बारात किसकी है तो दादी ने उत्तर दिया कि दूल्हे की बारात है । मीरा ने पुनः प्रश्न किया कि उसका दूल्हा कहाँ है तो दादी ने कहा कि उसका दूल्हा गिरधर गोपाल है । कहा जाता है तभी से मीरा ने गिरधर गोपाल को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना शुरू कर दिया । राव दूदा ने पं . गजाधर को मीरा को शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया । थे पण्डितजी मीरा को भिन्न – भिन्न कथा , पुराण , स्मृतियाँ आदि भी सुनाया करते थे । फलस्वरूप मीरा थोड़े ही वर्षों के बाद पूर्ण विदूषी एवं पण्डित बन गई ।

संत मीराबाई की कठिनाइयां

1516 ई . में मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से कर दिया गया लेकिन दुर्भाग्य से विवाह के सात वर्ष पश्चात् ही भोजराज की मृत्यु हो गई । मीरा को इससे भारी आघात लगा और उसका मन संसार से उचट गया और अब वह अपना अधिकांश समय सत्संग और भजन – कीर्तन में व्यतीत करने लगी । मीरा के पिता रत्नसिंह भी बाबर से लड़ते हुए खानवा के युद्ध में मारे गए । सन् 1528 में राणा साँगा भी इस दुनिया से चल बसे । मीरा के दादा राव दूदा की 1515 से पहले ही मृत्यु हो चुकी थी । इसके अतिरिक्त मालदेव ने मेड़ता पर भी अपना अधिकार कर लिया था । ऐसी स्थिति में मीरा को मेड़ता भी छोड़ना पड़ा और पुनः मेवाड़ आना पड़ा । मेवाड़ में राजगद्दी के प्रश्न पर राजपरिवार में गृह क्लेश शुरू हो गया । राणा साँगा के बाद पहले रतनसिंह और उसके बाद विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक हुए । मीरा के स्वतन्त्र विचारों के कारण मेवाड़ के राणा उससे नाराज थे । मीरा के द्वारा साधुओं की संगति में बैठना , कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचना आदि राणा को पसन्द नहीं आया । राणा ने इसे अपने.राजपरिवार की मर्यादाओं के विरुद्ध माना । कहा जाता है कि राणा द्वारा मीरा की जीवन – लीला समाप्त करने के लिए उसे विष का प्याला तथा सर्प भेजा गया परन्तु ईश्वर की कृपा से मीरा का कुछ नहीं बिगड़ा । इस प्रकार मीरा को अनेक यातनाएँ दी गईं परन्तु उसने इन सभी कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहन किया । अब सांसारिक जीवन की अपेक्षा मीरा का ध्यान भक्ति – भावना में अधिक रमने लगा । मीरा ने अपना सर्वस्व कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया और लोकलाज तथा राजपरिवार परम्पराओं की परवाह नहीं की ।

मीरा की कृष्ण भक्ति

मीरा में भगवान कृष्ण के प्रति अटूट आस्था थी । मीरा ने अटूट प्रेम के साथ स्वयं को भगवान कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया । वह रात – दिन भगवान कृष्ण के चरणों में बैठी रहती और उनके भजन गाती रहती थी । कुछ समय पश्चात् मीरा मेड़ता को छोड़कर वृन्दावन चली गई और वहाँ भगवान कृष्ण की भक्ति में तल्लीन हो गई । एक दिन मीरा वृन्दावन के उच्चकोटि के सन्त रूप गोस्वामी से मिलने गई परन्तु उन्होंने मीरा से मिलने से इनकार कर दिया और कहा कि वे स्त्रियों से भेंट नहीं करते हैं । इसके उत्तर में मीरा ने कहला भेजा कि “ क्या वृन्दावन में पुरुष निवास करते हैं ? यदि वृन्दावन में कोई पुरुष है तो वे केवल श्रीकृष्ण हैं । ” रूप गोस्वामी इस उत्तर को सुनकर मीरा से भेंट करने को सहमत हो गए । कुछ समय पश्चात् मीरा द्वारिका चली गई । वहीं रणछोड़जी के मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने भजन कीर्तन करते हुए मीरा ने अपना शेष जीवन व्यतीत किया । द्वारिका में रहते हुए मीरा की मृत्यु हो गई ।

मीरा की रचनाएं

मीरा द्वारा रचित कही जाने वाली रचनाएँ जो अब तक प्राप्त हुई हैं ,मीरा की उनकी कुल संख्या दस है । ये रचनाएँ हैं- ( 1 ) गीतगोविन्द की टीका , ( 2 ) नरसीजी का मायरा , ( 3 ) राग सोरठ का पद , ( 4 ) मलार राग , ( 5 ) राग गोविन्द , सत्य भामा नु रूसणुं , ( 6 ) मीरा की गरबी, ( 7 ) रुकमणी मंगल , ( 8 ) नरसी मेहता की हुण्डी , ( 9 ) चरीत , और ( 10 ) स्फुट पद । इनमें से केवल ‘ स्फुट पद ‘ ही मीरा की प्रामाणिक रचना मानी जाती है । मीरा के ‘ स्फुट पद ‘ आजकल मीराबाई की पदावली ‘ के नाम से प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं । मीरा की भाषा बोलचाल की राजस्थानी भाषा है । जिस पर ब्रज भाषा , गुजराती और खड़ी बोली का रंग चढ़ा हुआ है

मीरा की भक्ति भावना

मीरा की कृष्ण – भक्ति में अटूट आस्था थी । उसकी कृष्ण – भक्ति तीन सोपानों से होकर गुजरती है । पहला सोपान प्रारम्भ में उसका कृष्ण के लिये लालायित रहने का है । इस अवस्था में वह व्यग्रता से गा उठती है— “ मैं विरहणी बैठी जागू , जग सोवी री आली । ” वह कह उठती है , “ दरस बिन दूखण लागें नैण । ” दूसरा सोपान वह है जब उसे कृष्ण – भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है- “ पायोजी मैंने राम रतन धन पायौ । ” तीसरा सोपान वह है जब उसे आत्मबोध हो जाता है , जो सायुज्य भक्ति की चरम सीढ़ी है । वह अपनी भक्ति में सरल भाव से ओत – प्रोत होकर कहती है- ” म्हारे तो गिरधर गौपाल दूसरो न कोई । ” मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उनके साथ एकाकार हो जाती है । मीरा की उपासना माधुर्य भाव की थी अर्थात् वह अपने देव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थी । कृष्ण को ही वह परमात्मा और अविनाशी मानती थी । उसकी भक्ति की विशेषता यह थी कि उसमें ज्ञान पर उतना बल नहीं था जितना भावना पर था । मीरा के पद अपनी तीव्र प्रेमानुभूति के कारण जनसाधारण में अत्यन्त लोकप्रिय बनते चले गए । मीरा सगुण भक्ति की उपासिका थी और श्रीकृष्ण उनके आराध्यदेव थे । के अनुसार मीरा निर्गुण भक्ति की उपासिका थी । डॉ . पीताम्बरदत्त बड़वाल के अनुसार मीरा योग अथवा नाथपंथ से प्रभावित थी परन्तु आराध्यदेव के विषय में कोई भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए । गिरधर गोपाल ( कृष्ण ) ही एकमात्र मीरा के आराध्यदेव थे । अपने आराध्य के सगुण स्वरूप का वर्णन करते हुए वह कहती है बसो मेरे नैनन में नन्दलाल । मोहनी मूरति साँवरी सूरति , नैना बने विसाल । अधर सुधारस मुरली राजति , उर वैजन्ती माल ॥ डॉ . कालूराम शर्मा लिखते हैं— “ मीरा की सगुण भक्ति में किसी प्रकार के सन्देह का प्रश्न ही नहीं उठता । जहाँ कहीं भी मीरा ने अपने गिरधर के लिए निर्गुण ब्रह्मवाची उपाधियों का प्रयोग किया है , वहाँ भी उनके साथ कृष्ण का सगुण स्वरूप जुड़ा रहा है । जोगी या जोगीया जैसे शब्द वस्तुतः प्रियतम के ही वाचक हैं । अतः इन शब्दों को लेकर पीरा का नाथपंथ या नाथ सम्प्रदाय से सम्बन्ध जोड़ना निरर्थक है । ” यदि मीरा ने “ भज मन चरण कंवल अविनासी ” कहकर निर्गुण ब्रह्मवाची ‘ अविनाशी ‘ शब्द का प्रयोग कर भी दिया तो उससे इसकी मूल सगुणोपासना पर कोई आँच नहीं आती , क्योंकि उसने इसके साथ ही ‘ चरण कंवल ‘ शब्दों का प्रयोग किया है , जिसके पीछे सगुण कृष्ण की निर्मल छवि मुस्कराती है ।

डॉ . हीरालाल माहेश्वरी का कथन है– ” भौतिक प्रेम से प्रारम्भ होकर लोकलाज और सांसारिक कष्टों का उपहास करते हुए , प्रबल मानसिक संघर्षों में अपूर्व असन्तुलन रखते हुए उसकी साधना कृष्णोन्मुख होती हुई उन्हीं के रंग में रंग जाती है । साधना के इस धरातल से भी उठकर वह शुद्ध निर्गुण की भावभूमि पर पहुँच जाती है । यही कारण है कि उसके पदों में एक मांगलिक और पावन प्रभाव है ।

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