वर्ष प्रतिपदा : हिन्दु नववर्ष पर निबंध । Essay on hindu new year

संकेत बिंदु – वर्ष प्रतिपदा
- नव वर्ष का आरम्भ
- विक्रम संवत् के आरम्भकर्ता
- ऐतिहासिक दृष्टि से विक्रम संवत्
- विक्रम संवत् मनाने के अनेक ढंग
- उपसंहार ।
नव वर्ष का आरम्भ
भारत का सर्वमान्य संवत् विक्रम संवत् है । विक्रम संवत् के अनुसार नव वर्ष का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है । ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का आरम्भ हुआ था और इसी दिन से भारतवर्ष में कालगणना आरम्भ हुई थी ।
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि ।
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति ॥
यही कारण है कि ज्योतिष में ग्रह , ऋतु , मास , तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही होती है ।
विक्रम संवत् के आरम्भकर्ता
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसन्त ऋतु में आती है । वसन्त में प्राणियों को ही नहीं , वृक्ष , लता आदि को भी आह्लादित करने वाला मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है । इतना ही नहीं वसन्त समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके , समूची धरती को पुष्पाभरण से अलंकृत करके मानव – चित्त की कोमल वृत्तियों को जागरित करता है । इस ‘ सर्वप्रिये चारुतरं वसन्ते ‘ में संवत्सर का आरम्भ ‘ सोने में सुहागा ‘ को चरितार्थ करता है । हिन्दू मन में नव वर्ष के उमंग , उल्लास , मादकता को दुगना कर देता है ।
विक्रम संवत् सूर्य सिद्धान्त पर चलता है । ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धान्त का मान ही भ्रमहीन एवं सर्वश्रेष्ठ है । सृष्टि संवत् के प्रारम्भ से यदि आज तक का गणित किया जाए तो सूर्य सिद्धान्त के अनुसार एक दिन का भी अन्तर नहीं पड़ता ।
पराक्रमी महावीर विक्रमादिव्य का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगरी उज्जयिनी में हुआ था । पिता महेन्द्रादित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं । इस दम्पती को पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक व्रत और तप करने पड़े । शिव की नियमित उपासना और आराधना से उन्हें पुत्ररत्न मिला था । इसका नाम विक्रमादित्य रखा गया । विक्रम के युवावस्था में प्रवेश करते ही पिता ने राज्य का कार्य भार उसे सौंप दिया ।
राज्यकार्य संभालते ही विक्रमादित्य को शकों के विरुद्ध अनेक तथा बहुविध युद्धों में उलझ जाना पड़ा । उसने सबसे पहले उज्जयिनी और आस – पास के क्षेत्रों में फैले शकों के आतंक को समाप्त किया । सारे देश में से शकों के उन्मूलन से पूर्व विक्रम ने मानव गणतन्त्र का फिर संगठन किया और उसे अत्यधिक बलशाली बनाया और वहाँ से शकों का समूलोच्छेद किया । जिस शक्ति का विक्रम ने संगठन किया था , उसका प्रयोग उसने देश के शेष भागों में से शक- सत्ता को समाप्त करने में लगाया और उसकी सेनाएं दिग्विजय के लिए निकल पड़ीं । ऐसे वर्णन उपलब्ध होते हैं कि शकों का नाम – निशान मिटा देने वाले इस महापराक्रमी वीर के घोड़े तीनों समुद्रों में पानी पीते थे । इस दिग्विजयी मालवगण नायक विक्रमादित्य की भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस – पास करूर नामक स्थान पर हुई । शकों के लिए यह इतनी बड़ी पराजय थी कि कश्मीर सहित सारा उत्तरापथ विक्रम के अधीन हो गया ।
ऐतिहासिक दृष्टि से विक्रम संवत्
ऐतिहासिक दृष्टि से यह सत्य है कि शकों का उन्मूलन करने और उन पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रम संवत् आरम्भ किया गया था जो कि इस समय की गणना के अनुसार ईस्वी सन् से ५७ वर्ष पहले शुरू होता है । इस महान् विजय के उपलक्ष्य में मुद्राएँ भी जारी की गई थीं , जिनके एक और सूर्य था , दूसरी ओर ‘ मालवगणस्य जयः ‘ लिखा हुआ था ।
विदेशी आक्रमणकारियों को समाप्त करने के कारण केवल कृतज्ञतावश उसके नाम से संवत् चलाकर ही जनसाधारण ने वीर विक्रम को याद नहीं रखा , बल्कि दिन – रात प्रजापालन में तत्परता , परदुःख – परायणता , न्यायप्रियता , त्याग , दान , उदारता आदि गुणों के कारण तथा साहित्य और कला के आश्रयदाता के रूप में भी उन्हें स्मरण किया जाता है । यह तो हुई विक्रमादित्य की चर्चा । वर्ष प्रतिपदा के महत्त्व के कुछ अन्य कारण भी हैं
‘ स्मृति कौस्तुभ ‘ के रचनाकार का कहना है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रेवती नक्षत्र के विष्कुम्भ के योग में दिन के समय भगवान् ने मत्स्य रूप अवतार लिया था । ईरानियों में इसी तिथि पर ‘ नौरोज ‘ मनाया जाता है । ( ईरानी वस्तुतः पुराने आर्य ही हैं । )
संवत् 1946 में हिन्दू राष्ट्र के महान् उन्नायक , हिन्दू संगठन के मंत्र द्रष्टा तथा धर्म के संरक्षक परम पूज्य डॉ . केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म वर्ष प्रतिपदा के ही दिन हुआ था । वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे । वर्ष प्रतिपदा का पावन दिन संघ शाखाओं में उनका जन्मदिन के रूप में सोल्लास मनाया जाता है । प्रतिपदा 2045 से प्रतिपदा 2046 तक उनकी जन्म शताब्दी मनाकर कृतज्ञ राष्ट्र ने उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी ।
विक्रम संवत् मनाने के अनेक ढंग
आंध्र में यह पर्व ‘ उगादि ‘ नाम से मनाया जाता है । उगादि का अर्थ है युग का आरम्भ अथवा ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का प्रथम दिन आंध्रवासियों के लिए यह दीपावली की भाँति हर्षातिरेक का दिन होता है ।
सिंधु प्रान्त में नवसंवत् को चेटी चंडो ( चैत्र का चन्द्र ) नाम से पुकारा जाता है । सिन्धी समाज इस दिन को बड़े हर्ष और समारोहपूर्वक मनाता है ।
काश्मीर में यह पर्व ‘ नौरोज ‘ के नाम से मनाया जाता है । जवाहरलाल जी ने अपनी आत्मकथा ‘ मेरी कहानी ‘ में लिखा है , ‘ काश्मीरियों के कुछ खास त्यौहार भी होते हैं । इनमें सबसे बड़ा नौरोज याने वर्ष प्रतिपदा का त्यौहार है । इस दिन हम लोग नए कपड़े पहनकर बन ठनकर निकलते । घर के बड़े लड़के – लड़कियों को हाथ – खर्च के तौर पर कुछ पैसे मिला करते थे ।
उपसंहार
‘ नव वर्ष मंगलमय हो , सुख समृद्धि का साम्राज्य हो , शांति और शक्ति का संचरण रहे , इसके लिए नव संवत् पर हिन्दुओं में पूजा का विधान है । इस दिन पंचांग का श्रवण और दान का विशेष महत्त्व है । व्रत , कलश स्थापन , जलपात्र का दान , वर्षफल श्रवण , गतवर्ष की घटनाओं का चिंतन तथा आगामी वर्ष के संकल्प , इस पावन दिन के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम माने जाते हैं । प्रभु से प्रार्थना की जाती है
भगवस्तव प्रसादेन वर्ष क्षेममिहास्तु मे ।
संवत्सरोपसर्गाः मे विलयं यान्त्वशेषतः ॥
( हे प्रभो ! आपकी कृपा से नववर्ष मेरे लिए कल्याणकारी हो तथा वर्ष के सभी विध्न पूर्णतः शान्त हो जाएँ ) हम हिन्दू हैं । हिन्दू धर्म में हमारी आस्था है , श्रद्धा है तो हमें चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उमंग और उत्साह से नववर्ष मानना और मनाना चाहिए । सम्बन्धियों तथा मित्रों को ‘ ग्रीटिंग कार्ड ‘ भेजना तथा शुभकामना प्रकट करना हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए । इसी से हमारे समाज में पहले से ही विद्यमान परम्परा का निर्वाह करते हुए शुभसंस्कारों का विकास होगा और हमारी भारतीय अस्मिता की रक्षा भी होगी ।