Homeइतिहासमहान सम्राट महाराज विक्रमादित्य संपूर्ण जानकारी। maharaj vikramaditya.maharaj vikramaditya in hindi.

महान सम्राट महाराज विक्रमादित्य संपूर्ण जानकारी। maharaj vikramaditya.maharaj vikramaditya in hindi.

भारत का अत्यंत गौरवशाली इतिहास रहा है। तथा अनेकों ऐसे राजा हुए है। जो अपने शौर्य,पराक्रम,दानवीरता, ज्ञान और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हीं में से एक राजा ऐसे थे जो अपनी न्याय व्यवस्था के लिए जाने जाते थे। उनकी न्याय व्यवस्था के चर्चे संपूर्ण विश्व में फैले हुए थे। यही नहीं देवता भी उनसे न्याय करवाने आते थे। जी हां उनका नाम था चक्रवर्ती सम्राट महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya). महाराज विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट थे अर्थात उनके राज में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था। महाराज विक्रमादित्य ने हिंदुत्व का परचम पूरे विश्व में लहराया था तथा उन्हीं के कारण ही आज सनातन धर्म बचा हुआ है। महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)के राज में ही भारत सोने की चिड़िया बना था। आइए जानते हैं विक्रमादित्य से जुड़े हुए महत्वपूर्ण तथा रोचक जानकारी।और साथ ही आपको बताएंगे कि कैसे देवता विक्रमादित्य से न्याय करवाने धरती लोक पर आते थे।

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महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)का परिचय। about vikramaditya.

सम्राट विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। महाराज विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे। जो अपने न्याय वीरता पराक्रम शौर्य ज्ञान तथा उदारशिलता के लिए प्रसिद्ध थे। कलिकाल के 3000 वर्ष बीत जाने के पश्चात 101 ईसा पूर्व विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। विक्रमादित्य के पिता का नाम गर्दभील्ल( गंधर्वसेन) था। सम्राट विक्रमादित्य की बहन का नाम मैनावती था तथा उनके भाई भर्तृहरि महाराज थे। सम्राट विक्रमादित्य की मां का नाम सौम्यदर्शना था। महाराज विक्रमादित्य की 5 पत्नियां भी थी जिनका नाम मलावती, मदनलेखा, पद्मिनी,चेल्ल और चिलमहादेवी था। महाराज के 2 पुत्र विक्रम चरित और विनय पाल थे तथा उनकी दो पुत्रियां विधोत्तमा(प्रियगुंमजंरी) तथा वसुंधरा थी। सम्राट विक्रमादित्य के एक भांजा था जिसका नाम गोपीचंद था। तथा उनके प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। महाराज विक्रमादित्य के राज में राजपुरोहित त्रिविक्रम तथा वसुमित्र थे। तथा उनके सेनापति विक्रम शक्ति तथा चंद्र थे। महाराज विक्रमादित्य ने शको को परास्त किया था। उन्होंने अपनी जीत के साथ ही हिंदू विक्रम संवत की शुरुआत की थी। तथा नौ रत्नों की शुरुआत भी महाराज विक्रमादित्य द्वारा ही की गई। जिसको तुर्क राजा अकबर ने भी अपनाया था।

महाराज विक्रमादित्य अपनी जनता के कष्ट तथा हाल जानने के लिए छद्मवेष धारण कर नगर भ्रमण के लिए जाते थे। वे अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। राज विक्रमादित्य लोकप्रिय तथा न्याय प्रिय राजाओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।

महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)का राज्य कहा तक फैला था।

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इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट महाराज विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान ,इराक तथा अरब में भी फैला था। महाराज विक्रमादित्य की अरब पर विजय का वर्णन अरब के एक अरबी कवि जरहाम किनतोइ ने अपनी पुस्तक सायर उल ओकुल मे किया है। प्राचीन पुराणों तथा इतिहास ग्रंथ से पता चलता है कि महाराज विक्रमादित्य का राज अरब और मिस्र में भी था अर्थात अरब तथा मिस्त्र महाराज विक्रमादित्य के अधीन थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर की एक प्रसिद्ध लाइब्रेरी मकतब ए सुल्तानिया मे एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ रखा हुआ है। इसमें महाराज विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख मिलता है जिसमें कहा गया है कि वह लोग बहुत भाग्यशाली है जो इन के राज में जन्मे और सम्राट विक्रमादित्य के राज में जीवन व्यतीत किया। महाराज अत्यंत दयालु कर्तव्यनिष्ठ तथा उदारशील शासक थे। जो सभी के कल्याण के बारे में सोचते थे। तथा उन्होंने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया। और अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि यहां शिक्षा का उजाला फैल सके।

महाराज विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त कराने अत्याचारी राजाओं से मुक्ति दिलाने के लिए एक वृहत अभियान चलाया था। महाराज ने अपनी सेना का पुनर्गठन किया जिससे उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी। जिससे उन्होंने भारत में चारों तरफ अभियान चलाकर विदेशी शासकों तथा अत्याचारी राजाओं से मुक्त करवाया था। और एक छत्र शासन कायम किया। सम्राट विक्रमादित्य का वर्णन भविष्य पुराण तथा स्कंद पुराण में भी मिलता है। सम्राट विक्रमादित्य चक्रवर्ती राजा थे अर्थात उनका राज्य विस्तार इतना अधिक था कि उनके राज्य में कभी भी सूर्य अस्त नहीं होता था।

महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)के नवरत्न (नौरत्न) और दरबार।

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सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न।

नौरत्नो की शुरुआत महाराज विक्रमादित्य ने ही की थी। भारतीय परंपरा के अनुसार उनके नवरत्न धन्वंतरि,क्षपणक, अमर सिंह , शंकु,खटकरपारा,कालिदास, वेतालभट्ट(बेतालभट्ट) ,वररुचि, और वराहमिहिर थे।

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राज कवि थे।वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी माने जाते हैं। जिन्होंने महाराज विक्रमादित्य के बेटे की मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी। तथा वराहमिहिर ने ही विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया था। जिसे मुगलों के आक्रमण के बाद क़ुतुब मीनार में बदल दिया गया था। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। और यह माना जाता है कि उन्होंने ही सम्राट विक्रमादित्य को सोलह छन्दों (नीति प्रदीप) आचरण का श्रेय दिया था।

धन्वन्तरि- महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक धन्वंतरि वैद्य तथा औषध विज्ञानी थे। उनके लिखे नो ग्रंथ पाए जाते हैं जो सभी आयुर्वेदिक शास्त्र से संबंधित थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी धन्वंतरी से उपमा दी जाती है।

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क्षणपक- सम्राट विक्रम सभा के द्वितीय के नवरत्न क्षणपक को कहा गया है यह बौद्ध सन्यासी थे। उन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें भिक्षाट्टन तथा नानार्थकोष ही उपलब्ध बताए जाते हैं।

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अमर सिंह- इनको कोष( डिक्शनरी) का जनक माना जाता है। इन्होंने शब्दकोश बनाया था तथा साथ ही शब्द ध्वनि पर कार्य किया। यह प्रकाण्ड विद्वान थे। बोधगया में एक मंदिर से प्राप्त शिलालेख के आधार पर पता चलता है कि इस मंदिर का निर्माण इन्होंने ही करवाया था। इनके अनेक ग्रंथों में से एक मात्र ग्रंथ अमरकोश ऐसा है कि इसके आधार पर उनका यश अखंड है। संस्कृत विद्वानों के अनुसार अष्टाध्यायी पंडितों की माता तथा अमरकोश पंडितों का पिता कहा गया है। हड़ताल यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान पंडित बन जाता है।

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शकुं- नीति शास्त्र का ज्ञान रखते थे अर्थात यह नीति शास्त्री तथा रसाचार्य थे। उनका पूरा नाम शड्कुक हैं। इनका एक काव्य ग्रंथ भुवनाभ्युदयम बहुत प्रसिद्ध रहा है। लेकिन वह आज भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है।

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वैतालभट्ट – वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। और यह माना जाता है कि उन्होंने ही सम्राट विक्रमादित्य को  सोलह छन्दों (नीति प्रदीप) आचरण का श्रेय दिया था। या युद्ध कौशल में भी महारथी थे। ये हमेशा सम्राट विक्रमादित्य के साथ ही रहे। तथा सीमवर्ती सुरक्षा के कारण इन्हें द्वारपाल भी कहा गया। विक्रम तथा बेताल की कहानी लोकप्रियता तथा जगत प्रसिद्ध है। वेताल पंचविशंति के रचीयता यही है। किंतु इनका नाम अभी सुनने को नहीं मिलता।

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घटकर्पर – जितने भी लोग संस्कृत जानते हैं वह सब जानते हैं कि घटकर्पर किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। उनका वास्तविक नाम यह नहीं है। इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो भी विद्वान इनको अनुप्रास तथा यमक में पराजित कर देगा यह उनके घर फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तभी से इनका नाम घटकर्पर प्रसिद्ध हो गया किंतु इनका वास्तविक नाम अभी तक लुप्त है। इनकी रचना का नाम भी घटकर्पर काव्यम हीं है। उनका एक अन्य ग्रंथ नीतिसार के नाम से भी प्रसिद्ध है।

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कालिदास- महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राज कवि थे। कालिदास जी महाराज विक्रमादित्य के प्राण प्रिय कवि थे। कालिदास जी की कहानी अत्यंत रोचक है कहा जाता है कि इनको विद्या मां काली की कृपा से प्राप्त हुई। सबसे इनका नाम कालिदास पड़ गया। व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था। परंतु इनकी प्रतिभा को देखकर अपवाद रूप में कालिदास ही रखा गया। जैसे विश्वामित्र को उसी रूप में रखा गया हैं। कालिदास जी के चार काव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध है। शकुंतलम उनकी अनंतमय कृति मानी जाती है।

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वराहमिहिर – वराहमिहिर उस युग के  प्रमुख ज्योतिषी माने जाते हैं। जिन्होंने महाराज विक्रमादित्य के बेटे की मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी। तथा वराहमिहिर ने ही विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया था। जिसे मुगलों के आक्रमण के बाद  क़ुतुब मीनार में बदल दिया गया था।वराहमिहिर ने ही काल गणना, हवाओं की दिशा, पशुधन प्रवृत्ति, वृक्षों से भूजल का आकलन आदि की खोज की। उन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे जिनमें से बृहज्जातक,सुर्यसिद्धांत, बृहस्पति संहिता, पंचसिद्धान्ती, मुख्य हैं। गणक,तरिन्गणी,लघु जातक, समास संहिता, विवाह पटल, योग यात्रा आदि का भी इनके नाम से उल्लेख मिलता है।

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वररुचि यह कवि तथा व्याकरण के ज्ञाता थे। शास्त्रीय संगीत का ज्ञान प्राप्त था। कालिदास जी की भांति ही इन्हें भी काव्यकर्ताओं में से एक माना जाता है। उनके नाम पर मतभेद है क्योंकि उनके नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं।

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नौरत्नो के चित्र– मध्य प्रदेश के उज्जैन महानगर के महाकाल मंदिर के पास ही सम्राट विक्रमादित्य टीला है। यहां पर विक्रमादित्य के नवरत्नों की मूर्तियां विक्रमादित्य संग्रहालय में स्थापित की गई है।

महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)के नाम तथा उपाधि।

महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)ने शकों को पराजित किया। उनके पराक्रम को देखकर उन्हें महान सम्राट कहां गया। तथा उनके नाम की उपाधि भारतवर्ष में कुल 14 राजाओं को दी गई। चक्रवर्ती सम्राट महाराज विक्रमादित्य के नाम की उपाधि बाद में भारत में कई राजाओं को प्राप्त थी। जिनमें गुप्त वंश के सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय तथा सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। महाराज विक्रमादित्य का नाम विक्रम तथा आदित्य समाज से बना हुआ है। जिसका अर्थ है पराक्रमी अथवा सूर्य के समान पराक्रम रखने वाला। महाराज विक्रमादित्य को विक्रम तथा विक्रमार्क( विक्रम+अर्क) भी कहा जाता है जिसमें अर्क का अर्थ सूर्य होता है।

भारत में महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)का नाम पश्चिम के सीजर के नाम से भी प्रख्यात था। जिसे विजय वैभव तथा साम्राज्य का प्रतीक माना जाता है।

सम्राट विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)का सिंहासन।

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महाराज विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)के सिंहासन के बारे में कहा जाता है कि यह कोई साधारण सिंहासन नहीं था देवराज इंद्र ने महाराज विक्रमादित्य के कौशल तथा अंतर्दृष्टि को देखते हुए स्वयं विक्रमादित्य को भेंट स्वरूप प्रदान किया था। कथाओं में कहा जाता है कि यह सिंहासन भगवान शिव का था जिसको इन्होंने देवराज इंद्र को दे दिया था। सिंहासन अति भव्य था तथा उसके कदमों पर सुंदर 32 मूर्तियां लगी हुई थी जो सजीव होने का आभास दिलाती थी। यह मूर्तियां देवी पार्वती कि आप सराय थी जो एक शराब के कारण सिंहासन की मूर्तियों में बदल गई थी। यह शुद्ध सोने से बना हुआ था तथा इसके सभी भाग रत्नों से सजाए गए थे। उज्जैन के विद्वानों ने महाराज विक्रमादित्य की मौत के पश्चात उनके बराबर का योग्य के राजा न होने के कारण इसे दफनाने का फैसला लिया। कहते हैं कि सिंहासन में लगी 32 मूर्तियां हर कार्य में महाराज विक्रमादित्य की सहायता करती थी।

सिंहासन में लगी 32 मूर्तियों के नाम 1.रत्नमंजरी, 2. चित्रलेखा, 3.चन्द्रकला, 4. कामकंदला, 5 लीलावती, 6.रविभामा, 7कौमुदी, 8. पुष्पवती, 9. मधुमालती, 10. प्रभावती, 11. त्रिलोचना, 12. पद्मावती, 13. कीर्तिमती, 14सुनयना, 15.सुन्दरवती, 16.सत्यवती, 17.विद्यावती, 18 तारावती, 19. रुपरेखा, 20.ज्ञानवती, 21. चन्द्रज्योति, 22 अनुरोधवती 23. धर्मवती, 24. करुणावती, 25.त्रिनेत्री, 26. मृगनयनी, 27.मलयवती, 28.वैदेही, 29.मानवती, 30.जयलक्ष्मी, 31.कौशल्या, 32. रानी रुपवती थे। अलग-अलग जगहों में यह नाम अलग-अलग हो सकते हैं।

कहते हैं कि जब राजा भोज इस सिंहासन पर बैठने लगे तो ये बत्तीस पुतलियाँ उनका उपहास करने लगीं और हंसने लगी। जब उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि इस सिंहासन पर वही बैठ सकता है जो सम्राट विक्रमादित्य के समान महादानी, त्यागी, निस्वार्थी,पराक्रमी और न्यायप्रिय राजा हो। और सभी पुतलियौ ने एक- एक करके महाराज की कथा सुनाने लगीं। जो सिंहासन बत्तीसी के रूप में प्रसिद्ध हैं। सिंहासन बत्तीसी 32 कहानियों का संग्रह है जिसमें पुतलियां महाराज के गुणों का वर्णन करती है।

सम्राट विक्रमादित्य(maharaj vikramaditya)कि मृत्यु कैसे हुई।

सम्राट विक्रमादित्य की मृत्यु के बारे में इक्कतीस वी पुतली कौशल्या ने बताया। जब सम्राट विक्रमादित्य वृद्धावस्था में आ गए थे तो उन्होंने अपने योग बल से यह जान लिया था कि उनका अंतिम समय अब निकट है। महाराज विक्रमादित्य राज कार्य तथा धर्म में स्वयं को लगाए रखते थे और उन्होंने वन में साधना के लिए एक कुटिया बनाई थी। एक दिन उन्होंने देखा की कुटिया में सामने वाले पहाड़ से प्रकाश आ रहा है इस प्रकाश के बीच उनको एक सुंदर महल दिखाई दिया। महाराज को भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने मां काली द्वारा प्रदत दो बेतालो का स्मरण किया। उनके आदेश पर दोनों बेताल उनको पहाड़ी पर ले आए। तथा उन्होंने कहा कि हम इससे आगे नहीं जा सकते कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि एक योगी महात्मा ने इस महल के चारों ओर तंत्र शक्ति का घेरा बनाया हुआ है और इस भवन में उनका निवास है। तथा इस भवन में वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उन योगी से अधिक हो। वास्तविकता जानने के पश्चात सम्राट विक्रमादित्य ने महल की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए वह जानना चाहते थे कि उनका पुण्य उन योगी से अधिक है या नहीं। चलते-चलते वह उस भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए तथा एकाएक उनके पास एक अग्नि पिंड आया और वहां पर स्थिर हो गया तथा महल के अंदर से एक आज्ञा भरा स्वर आया। उसके बाद वह अग्नि पिंड चलता हुआ महल के पीछे चला गया तथा दरवाजा साफ हो गया जब वह अंदर गए तो वही आवाज उनसे उनका परिचय पूछने लगी। तथा उन्होंने कहा कि वह सब कुछ साफ-साफ बताएं वरना वे अपने श्राप से आने वाले को भस्म कर देंगे। महाराज विक्रमादित्य तब तक एक कक्ष में पहुंच चुके थे। उनको देखकर वहां एक योगी खड़े हुए। जब महाराज विक्रमादित्य ने बताया कि वे उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य है तो योगी ने कहा कि वे स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं। उनको आशा नहीं थी कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे। योगी ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। तथा महाराज विक्रमादित्य से कुछ मांगने को कहा तब महाराज विक्रमादित्य ने तमाम सुख-सुविधाओं से सहित यह भवन मांगा। वे योगी खुशी-खुशी यह भवन महाराज विक्रमादित्य को सौंपकर उसी वन में कहीं चले गए। काफी दूर चलने के पश्चात उन योगी को उनके गुरु मिले। जब उनके गुरु ने उनसे इस तरह वन में भटकने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि वे उस भवन को महाराज विक्रमादित्य को भेंट कर चुके हैं। यह सुनकर उनके गुरु को हंसी आ गई उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी के सबसे दानवीर व्यक्ति को वह क्या दान करेंगे। उन्होंने योगी से कहा कि वह ब्राह्मण रूप में जाकर विक्रमादित्य से उस भवन को मांग ले। तब योगी ने ब्राह्मण का वेश बनाकर विक्रमादित्य के पास उस कुटिया में गए। तथा रहने के लिए आश्रय प्रदान करने की मांग की। तब महाराज विक्रमादित्य ने कहा कि वे अपनी इच्छा अनुसार रहने की जगह मांग सकते हैं तब उन्होंने उस महल को मांगा तो महाराज विक्रमादित्य मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह महल जो का तो वहीं छोड़ कर आ गए थे। मैं तो बस उनकी परीक्षा लेना चाहते थे। इक्कतीस वी पुतली ने बताया कि महाराज विक्रमादित्य देवताओं के समान गुणों वाले थे। लेकिन उन्होंने मृत्यु लोक में जन्म लिया था तो था वह मानव थे इसलिए उन्होंने एक दिन अपनी देह त्याग कर दिया। उनकी मृत्यु के पश्चात प्रजा में हाहाकार मच गया चारों ओर विलाप होने लगा जब उनकी चिता सजाई गई। तब देवताओं ने उनकी चिता पर पुष्प वर्षा की।

महाराज विक्रमादित्य के पश्चात उनके बड़े पुत्र को राजगद्दी दी गई लेकिन वह उस सिंहासन पर बैठ नहीं सका उसको समझ नहीं आया कि वह क्यों इस सिंहासन पर नहीं बैठ पा रहा है। फिर एक दिन स्वय महाराज विक्रमादित्य उसके सपने में आए और कहाँ के तुम इस सिंहासन पर तभी बैठ सकोगे जब तुम देवत्व को प्राप्त कर लोगे। और जब तुम अपने पुण्य तथा यश से इस सिंहासन पर बैठने लायक हो जाओगे तो मैं स्वयं तुम्हारे सपने में आकर तुम्हें बता दूंगा। लेकिन महाराज विक्रमादित्य उनके सपने में नहीं आए तब उज्जैन के विद्वानों ने महाराज विक्रमादित्य की मौत के पश्चात उनके बराबर का योग्य राजा न होने के कारण इसे दफनाने का फैसला लिया। महाराज विक्रमादित्य ने सपने में आकर फिर कहां कि कालांतर में अगर कोई सर्वगुण संपन्न राजा होगा तो यह सिंहासन स्वयं ही उसके अधीन हो जाएगा। उनके पुत्र ने महाराज विक्रमादित्य की आज्ञा के अनुसार मजदूरों को बुलाकर सिंहासन को जमीन में गढ़वा दिया तथा स्वयं खंभावती में राज करने लगे।


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