धर्म को जानने से पूर्व धर्म के आधार को जानना होगा। dharm ke 5 aadhaar.

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हमारे मन मे यह प्रश्न रहता है कि धर्म क्या है धर्म के आधार क्या है।धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है धारण करने योग्य सबसे उचित धारणा । धर्म वह है जो व्यक्ति की चेतना जगाए, मुक्ति दिलाए ,जीवन के आखिरी लक्ष्य को पाने में मदद करें । धर्म ही तो सही गलत को समझने ,तर्क और विज्ञान से सत्य को समझने ,और असत्य तथा सत्य के फर्क को समझने में मदद करता है । हमें धर्म को जानने से पूर्व धर्म के आधारों को जानना होगा तो आइए जानते हैं धर्म के आधारों के बारे में।

धर्म के पांच आधार होते है।

धर्म के पांच आधार है ज्ञान, प्रेम, न्याय, समर्पण और धीरज। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य के मन में धर्म को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है तब मनुष्य को धर्म को समझने से पूर्व धर्म के इन पांच आधारों को समझना होगा । धर्म के पांच आधार होते हैं। प्रत्येक मनुष्य का जन्म इन 5 आधारों को प्राप्त करने के लिए होता है। ये पाँच आधार निम्नलिखित है।

धर्म के 5 आधार(dharm ke 5 aadhaar) निम्नलिखित है।

1. ज्ञान।

ज्ञान शब्द ‘ज्ञ’ धातु से मिलकर बना है जिसका अर्थ जानना, बोध, अनुभव और प्रकाश होता है। आसान शब्दों में कहे तो किसी वस्तु का जैसा स्वरूप है उसे वैसे ही अनुभव या जानना ज्ञान है। इसे हम एक उदाहरण द्वारा समझते हैं अगर हमें कहीं दूर पानी दिखाई दे और हमें पास जाने पर वहां पर पानी मिले तो हम कहेंगे कि हमें इस जगह पानी होने का वास्तविक ज्ञान हुआ। और इसके विपरीत यदि हमें वहां पर पानी नहीं मिले तो हम कहेंगे कि जो हमें पानी होने का ज्ञान हुआ वह गलत था। ज्ञान एक प्रकार की मनोदशा होती है जो ज्ञाता के मन में होने वाली हलचल है।

विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा परमात्मा के सच्चे स्वरूप को जानना ही ज्ञान है। ज्ञान अनुभव का संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक रूप होता है। जिसकी परिभाषा यथार्थअनुभव ज्ञानम कह कर दी जाती है। यथार्थ अनुभव प्राप्त करने के लिए भारतीय चिंतन में विभिन्न साधनों की चर्चा की गई है इनमें प्रमुख है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। इन साधनों से प्राप्त ज्ञान को प्रमा कहा गया है। जबकि इन से भिन्न साधनों से प्राप्त ज्ञान को अप्रमा कहा गया है। स्मृति, संशय से प्राप्त ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं होता है।

2. प्रेम।

जब भी प्रेम की बात आती है हम सबसे पहले मन में एक नायक और एक नायिका का चित्रण कर लेते हैं। क्या प्रेम एक नायक और एक नायिका के आकर्षण का बंधन है। नहीं प्रेम तो परिवार से हो सकता है। माता पिता, भाई बहन से हो सकता है। सखा मित्रों से हो सकता है। देश और जन्म भूमि के लिए हो सकता है । किसी कला के लिए हो सकता है। मानवता के लिए हो सकता है इस प्रकृति के लिए हो सकता है किसी के लिए भी हो सकता हैं। पर प्रेम कभी उस पन्ने पर लिखा ही नहीं जा सकता जिस पर पहले ही बहुत कुछ लिखा हो जैसे एक भरी मटकी में और पानी आ ही नहीं सकता। यदि प्रेम को पाना है तो मन को खाली करना होगा। अपनी इच्छाएं अपना सुख त्याग कर समर्पण करना होगा। अपने मन से व्यापार हटा दो तभी प्यार मिलेगा। सच्चा प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है। मान देने वाले के प्रति कभी राग नहीं होता, ना ही कभी अपमान देने वाले के प्रति द्वेष होता है। ऐसे प्रेम से दुनिया निर्दोष दिखाई देती है यह प्रेम मनुष्य के रूप में ईश्वर का अनुभव कराता है।

3. न्याय।

न्याय व्यक्तियों समुदायों तथा समूह को एक सूत्र में बांधता है किसी व्यवस्था को बनाए रखना ही न्याय है। न्याय उन मान्यताओं तथा प्रतिक्रियाओं का योग है जिनके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार तथा सुविधाएं प्राप्त होती है जिनको समाज उचित मानता है।

न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव कल्याण की धारणाओं से संबंधित है। इसलिए यह जीवन के पथ प्रदर्शन के लिए किसी भी नियम से अधिक आवश्यक है। न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है तथा समाज की मर्यादा बनी रहती है।

जब किसी व्यक्ति को किसी घटना में अन्याय का अनुभव होता है तो वह घटना उस के अंतर मन को झकझोर देती है। समस्त जगत उसे अपना शत्रु प्रतीत होता है। अन्याय लगने वाली घटना जितनी बड़ी होती है मनुष्य का हृदय भी उसका उतना ही विरोध करता है। उस घटना के उत्तर में वह न्याय मांगता है। वास्तव में समाज में किसी भी प्रकार का अन्याय व्यक्ति की आस्था तथा विश्वास का नाश है। अन्याय करने वाले के मन में पश्चाताप हो तथा अन्याय सहने वाले के मन में समाज के प्रति फिर से विश्वास जगे यही कार्य होता है न्याय का।

4. समर्पण।

समर्पण का अर्थ होता है अर्पित करना या सौंप देना। वास्तव में समर्पण किसी कार्य का नाम नहीं। समर्पण तो ह्दय की भावना और मन की स्थिति का नाम है।

समर्पण मन की ऐसी स्थिति का नाम है जब मनुष्य अपने संकल्पों का त्याग कर देता है। स्वयं से किसी प्रकार के निर्णय अथवा प्रण ही नहीं लेता। जिस प्रकार के कार्य उसे दिए जाते हैं उसी प्रकार के कार्य करता है। वास्तव में समर्पण का अर्थ होता है अपने आपको ,अपने मन को ,बुद्ध को, ज्ञान को, इच्छा को, आशा को, अपनी भावनाओं को,सब कुछ किसी को अर्पण कर देना। इसलिए ही तो समर्पण को भक्ति कहते हैं।

5. धीरज।

धीरज का अर्थ होता है धैर्य रखना। किसी भी कार्य में सबसे महत्वपूर्ण होता है धैर्य रखना। धैर्य रखने से कई बिगड़े हुए काम भी बन जाते हैं। जब मन इन्द्रियों के वशीभूत होता है। तब संयम की रेखा लाँघने का खतरा होता है। भावनाऐ बेकाबू हो जाती हैं। असंयम से मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। मनुष्य असंवेदनशील हो जाता है। मर्यादाएँ भंग होने लगती हैं। इसके लिए मनुष्य की भोगी वृत्ति जिम्मेदार होतीं हैं। इसलिए दृढ़ निश्चय तथा धीरज से जीवन अनुशासित होती हैं । हम भले ही देव ना बन पाए लेकिन हमें दानव बनने से बचना चाहिए धर्म को जानने से पूर्व मनुष्य को धीरज रखना आना चाहिए।

तो दोस्तों यह थे धर्म(Dharma)के पांच आधार। मैं आशा करता हूं कि आपको यह जानकारी पसंद आई होगी। धन्यवाद।

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