राजा हम्मीर की शरणागत रक्षा। राजा हम्मीर देव चौहान की कहानी। Raja Hammir dev ki kahani . हठी हमीर की कथा।

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राजा हम्मीर देव रणथंभौर के चौहान वंश के सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण शासक थे। इन्हें हठी हमीर के नाम से भी जाना जाता है। राव हमीर का जन्म 7 जुलाई 1272 को चौहान वंश के राव जेत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में हुआ था। राजा हम्मीर ने गद्दी संभालते ही सर्वप्रथम भामरस के राजा अर्जुन को हराया था। राणा हमीर देव और अलाउद्दीन खिलजी के मध्य युद्ध की एक कहानी प्रचलित है। तो आइए जानते हैं राजा हम्मीर देव और दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की कहानी।

राजा हम्मीर देव चौहान की कहानी।Rav Hammir dev ki story in hindi.

उस समय दिल्ली के सिंहासन पर अलाउद्दीन बादशाह था । बादशाह का एक प्यारा सरदार मुहम्मदशाह था । मुहम्मदशाह पर बादशाह की बड़ी कृपा थी और इसी से वह बादशाह का मुँह लगा हो गया था । एक दिन बातें करते समय हँसी में मुहम्मदशाह ने कोई ऐसी बात कह दी कि बादशाह क्रोध से लाल हो उठा । उसने मुहम्मदशाह को फाँसी पर चढ़ा देने की आज्ञा दे दी । बादशाह की आज्ञा सुनकर मुहम्मदशाह के तो प्राण सूख गये । किसी प्रकार वह दिल्ली से भाग निकला । अपने प्राण बचाने के लिये उसने अनेक राजाओं से प्रार्थना की , किन्तु किसी ने उसे शरण देना स्वीकार नहीं किया ।

बादशाह को अप्रसन्न करने का साहस किसी को नहीं हुआ । विपत्ति का मारा मुहम्मदशाह इधर – उधर भटक रहा था । अन्त में वह रणथम्भौर के चौहान राजा हमीर के राज – दरबार में गया । उसने राजा से अपने प्राण बचाने की प्रार्थना की । राजाने कहा – ‘ राजपूत का पहला धर्म है शरणागत की रक्षा । आप मेरे यहाँ निश्चिन्त होकर रहें । जब तक मेरे शरीर में प्राण है , कोई आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता । ‘ मुहम्मदशाह रणथम्भौर में रहने लगा । जब बादशाह अलाउद्दीन को इस बात का पता लगा तो उसने राजा हमीर के पास संदेश भेजा – ‘ मुहम्मदशाह मेरा भगोड़ा है । उसे फाँसी का दण्ड हुआ है । तुम उसे तुरंत मेरे पास भेज दो । ‘

राजा हमीर ने उत्तर भेजा – मोहम्मदशाह मेरी शरण आया है और मैंने उसे रक्षा का वचन दिया है मुझे चाहे सारे संसार से युद्ध करना पड़े भय लोभ में आकर में शरणागत का त्याग नहीं करूंगा। अलाउद्दीन को राजा का पत्र पाकर बहुत क्रोध आया। उसने इसे अपमान समझा उसने उसी समय सेना को रणथंभौर पर चढ़ाई करने को कहा। टिड्डियों के दलों के समान पठानों की बड़ी भारी सेना चल पड़ी रणथंबोर के किले को उस सेना 10 मील तक चारों ओर से घेर लिया अलाउद्दीन ने राजा के पास फिर संदेश भेजा कि वह मोहम्मदशाह को भेज दे। बादशाह समझता था कि राजा हमीर बादशाह की भारी सेना देख कर डर जाएगा किंतु राजा हमीर ने स्पष्ट कर दिया में किसी भी प्रकार शरणागत को नहीं दूंगा।

युद्ध प्रारम्भ हो गया । बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी ; किन्तु राजपूत वीर तो मौत से भी दो – दो हाथ करने को तैयार थे । भयंकर युद्ध महीनों चलता रहा । दोनों ओर के हजारों वीर मारे गये । अन्त में एक दिन मुहम्मदशाह ने स्वयं राजा हमीर से कहा – ‘ महाराज ! मेरे कारण आप बहुत दुःख उठा चुके । मुझसे अब आपके वीरों का नाश नहीं देखा जाता । मैं बादशाह के पास चला जाना चाहता हूँ । ‘ राजा हमीर बोले – ‘ मुहम्मदशाह ! तुम फिर ऐसी बात मत कहना । जबतक मेरे शरीर में प्राण हैं , तुम यहाँ से बादशाह के पास नहीं जा सकते । राजपूत का कर्तव्य है शरणागत – रक्षा । मैं अपने कर्तव्य का पालन प्राण देकर भी करूँगा । जैसे – जैसे समय बीतता गया , राजपूत सेना के वीर घटते गये । रणथम्भौर के किले में भोजन – सामग्री कम होने लगी । उधर अलाउद्दीन की सेना में दिल्ली से आकर नयी – नयी टुकड़ियाँ बढ़ती ही जाती थीं । अन्त में रणथम्भौर के किले की सब भोजन – सामग्री समाप्त हो गयी । राजा हमीरने ‘ जौहर – व्रत ‘ करने का निश्चय किया । राजपूत स्त्रियाँ जलती चितामें कूद गयीं और केसरिया वस्त्र पहनकर सब राजपूत वीर किलेका फाटक खोलकर निकल पड़े । शत्रुओं से लड़ते – लड़ते वे मारे गये । मुहम्मदशाह भी राजा हमीर के साथ ही युद्ध भूमि में आया और युद्ध में मारा गया । विजयी बादशाह अलाउद्दीन जब रणथम्भौर के किले में पहुँचा तो उसे केवल जलती चिताकी राख और अङ्गारे मिले । शरणागत की रक्षाके लिये अपने सर्वस्वका बलिदान करने वाले वीर महापुरुष संसार की इस पवित्र भारत – भूमि पर ही हुए है।

तो दोस्तों मैं आशा करता हूं कि आपको शरणागत की रक्षा करने वाले हमीर देव(hamir dev) की यह कहानी पसंद आई होगी धन्यवाद।

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